‘सर को क्या हो गया था।‘
‘किसे’
‘पीपी सर को’
‘क्या हो गया सर को’
‘तुमने देखा नहीं, व्हाट्सएप पर खबर चल रही है कि सर की डेथ हो गई है।‘
‘क्या, क्या बोल रहे
हो। कैसे, कब। ऐसा कैसे हो गया।‘
उस दिन सुबह जब मेरे मित्र मुकेश तिवारी ने फोन कर यह हृदयविदारक खबर दी, तो पहले तो इस पर यकीन ही नहीं हुआ और जब अहसास हुआ कि यह झूठ नहीं है, तो ऐसा लगा कि सारी दुनिया ही उजड़ गई हो।
सर के जाने के बाद,
मैंने अपने जीवन में पहली बार यह महसूस किया कि किसी अपने के चले जाने का दुख क्या होता है। सर को गए आज
15 दिन से अधिक हो गए हैं, लेकिन उनका चेहरा, उनके
साथ गुजारा गया वक्त, उनके जीवन से जुड़े पहलू अक्सर याद आते रहते हैं।
सर और मैं दोनों एक ही शहर में थे। फिर भी उनसे कई बार हफ्तों या महीनों में बात हो पाती थी, लेकिन ऐसा लगता था कि वो मेरे बहुत करीब हैं, आसपास ही हैं। उनका इस दुनिया में होना ही, मुझे और शायद उनके कई छात्र-छात्राओं को एक निश्चिंतता का भाव देता था। निश्चिंतता इस बात की कि कभी भी जिंदगी में कोई मुश्किल आ जाए और भले ही उस मुश्किल से निपटने के लिए भले ही हमारे सारे अस्त्र-शस्त्र खराब हो जाएँ, लेकिन एक सर हैं, जो हमारी मदद के लिए हमेशा खड़े रहेंगे। मैं, आपको अपना एक किस्सा बताता हूं। कुछ साल पहले किसी वजह से मैं बहुत परेशान था । उस वक़्त मैं सर को अक्सर फोन लगा दिया करता था, लेकिन अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद कभी सर झल्लाए नहीं, चिढ़े नहीं। तमाम सारी बातें करने के बाद कहते थे, तुम चिंता मत करो, अपन कुछ करते हैं। ऐसे ही एक दिन मैंने उन्हें फोन किया। उन्हें ऐसा लगा होगा कि मैं ज्यादा परेशान हूं, तो तुरंत कहा-एक काम करो घर आ जाओ, घर पर बात करते हैं। मैं ऑफिस का काम निपटाकर रात करीब 11 बजे उनके घर पहुंचा। मुझसे बात की, मुझे समझाया। मेरा मन हल्का करने के लिए कुछ हंसी मजाक की बात भी कीं और फिर अपने पिताजी से भी कहा, आप इसे जरा मोटिवेट करो। सर के सानिध्य ने मेरे घावों के लिए मरहम का काम किया। परेशानी तत्काल दूर नहीं हुई, लेकिन मेरा विश्वास और पक्का हो गया कि सर हैं, तो सब ठीक हो जाएगा।
वह हम सबके लिए ‘ब्रह्मास्त्र’ थे। सर को हमने हमेशा ऐसा ही पाया। विश्वविद्यालय में कोई छात्र अगर लड़ाई-झगड़ा कर ले, अनुशासनहीनता कर दे तो वह उसे खूब डांटते फटकारते थे, लेकिन उसके साथ खड़े रहते थे। उसका भविष्य खराब नहीं होने देते थे। शायद सर यह मानते थे कि बच्चों ने अपरिपक्व होने के कारण यह गलती की।
‘नहीं’ शब्द सर की डिक्शनरी में था ही नहीं। हम सबने इस बात को नोटिस किया था। मुश्किल से मुश्किल कार्य के लिए उनका जबाब होता था – ‘ठीक है न, अपन देखते हैं’, ‘कुछ करते हैं अपन, कुछ तुम चिंता मत करो’। ये शब्द हम सबके अंदर भरोसा जगाते थे। उनका देर रात तक डिपार्टमेंट में बैठे रहना। काम मे डूबे रहना। बच्चों के लिए हमेशा अपने दरवाजे खुले रखना। सीमित संसाधनों के बाद बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा देना। उनमें हमारी श्रद्धा को जगाता था।
मुझे याद है कि 2005-2006 में जब हम एमजे
कर रहे थे, सर ने हमें अच्छा एक्स्पोजर देने के लिए हमारे लिए एक से बढ़कर एक गेस्ट टीचर बुलाए। भोपाल
में कोई भी बड़ा पत्रकार या नामी गिरामी हस्ती आए, सर उन्हें किसी
भी तरह हमारे लिए विभाग में खींच ही लाते थे। ये लेक्चर भी 3-3, 4-4
घंटों के होते थे। मुझे याद है एक बार मषहूर व्यंग्यकार आलोक पुराणिक को सर ने
आमंत्रित किया था और करीब 10-12 घंटों तक उनकी क्लास चली थी।
हम लोग हर हफ्ते हमारा लैब जर्नल विकल्प निकालते थे। पीपी सर उसके संपादक थे। विकल्प की पहली बैठक से लेकर उसके प्रकाशित होने की हर प्रक्रिया में वह शामिल रहते थे।
सर को अपने हर स्टूडेंट की क्षमताओं का बहुत अच्छा ज्ञान होता था और वे उन्हें उसी के अनुसार जिम्मेदारियां भी दिया करते थे। मुझे याद है कि यूनिवर्सिटी में उस वक्त दीक्षांत समारोह आयोजित होने वाला था और हम सभी को उसके लिए विकल्प निकालना था। समारोह के एक दिन पहले हम लोग विकल्प को तैयार करने में लगे थे। लगभग सारी खबरें तय हो गई थीं और सिर्फ संपादकीय कॉलम के लिए जगह छूटी थी। संपादकीय लिखना हम सबके लिए काफी सम्मान की बात थी। सर शाम को लैब में आए और पेज को देखने के बाद संपादकीय लिखने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी। यह मेरे लिए बहुत गौरव की बात थी।
सर ने मुझे ऐसे कई मौके दिए, जिन्होंने
मेरा आत्मविश्वास बढ़ाया।
वर्ष 2005-06 में मप्र के ही सागर जिले में एक महिला के ‘सती’ होने का मामला सामने आया। घटनास्थल का दौरा
करने पत्रकारों और एक्टिविस्ट की टीम जा रही थी, सर ने उनके साथ
मुझे भेजा।
2005 में ही जब हमने एमजे कोर्स में दाखिला लिया था, उस वक्त मैं होशंगाबाद से ट्रेन से भोपाल आया-जाया करता था। ऐसे ही एक बार सर ने हम सभी को किसी क्लास के लिए रविवार को डिपार्टमेंट में बुलाया था। मैं होशंगाबाद से ट्रेन से आया, लेकिन हमारे कई साथी क्लास में नहीं आए। सर उसके एक-दो दिन बाद अनुपस्थित साथियों पर जमकर गुस्सा हुए और मेरा उदाहरण देते हुए कहा, ‘वो लड़का होषंगाबाद से क्लास अटेंड करने आया और तुम लोग यहीं के यही नहीं आ पाए’। सर के इन शब्दों ने मुझे जबर्दस्त ताकत दी।
कैरियर से संबंधित मेरे हर कदम में सर का बड़ी भूमिका रही। 2007 में सर के प्रयासों से ही कैंपस सिलेक्शन के द्वारा हम अमर उजाला नोएडा पहुंचे। नवभारत टाइम्स में कुछ साल काम करने के बाद मैं भोपाल वापस लौटने के लिए व्याकुल होने लगा था। सर से इस बारे में कई बार बात हुई। सर शायद नहीं चाहते थे कि मैं वापस भोपाल आऊं, इसलिए एक बार उन्होंने मना किया और कई बार बात को टाल भी दिया, लेकिन मैं भोपाल वापस आने और रिपोर्टिंग करने के लिए बैचेन था, इसलिए उनसे हर मुलाकात में इस बारे में बात करता। आखिरकार, 2011 के अंत में मैं भोपाल आ गया, लेकिन यहां आने के बाद समझ आया कि सर क्यों मुझे वापस आने के लिए हतोत्साहित करते थे।
सर की वाणी में सरस्वती बसती थीं। उनका अनुभव कमाल था और मेरे लिए वो बहुत लकी भी थे। इसे मैं आपको एक उदाहरण के जरिए समझाता हूं। वर्ष 2015 में मैं बीएमएचआरसी में इंटरव्यू के लिए जा रहा था। सुबह करीब 8ः15 बजे का वक्त रहा होगा। मैंने कैब बुक की और उसमें बैठते ही सर को फोन लगाया और कहा- ‘सर आज मेरा इस पद के लिए इंटरव्यू है, आप बताइये इंटरव्यू में क्या-क्या पूछा जा सकता है और उसके क्या जबाव देना चाहिए।‘ इसके बाद सर ने बताना शुरू किया और करीब आधे घंटे तक वो बताते रहे कि यह पूछा जा सकता है और तुम इसका इस तरह जबाव देना। किसी को यकीन नहीं होगा, लेकिन सच्चाई यह है कि सर ने मुझे जो प्रश्न मुझे बताए थे लगभग वो सारे प्रश्न इंटरव्यू में पूछे गए और मैंने उनका उसी तरह जबाव दिया, जैसा सर ने बताया था। नतीजा यह हुआ कि उस पद पर मेरा चयन हो गया।
सर के काफी स्टूडेंटस उनके बहुत अधिक फ्रेंडली थे। उनसे काफी हंसी मजाक कर लेते थे, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर पाया। हमारे कई जूनियर्स ने उन्हें बाबा नाम से बुलाते थे, लेकिन मैंने ऐसा कभी नहीं किया। ही सर को इस संबोधन से बुलाना मुझे पसंद ही नहीं था। मैं सर में अपने सबसे अच्छे, प्रिय और सम्मानित शिक्षक के तौर पर देखता था, इसलिए उनसे ऐसा शब्द बोलने का विचार ही मन में नहीं आया। उनके प्रति इस सम्मान की वजह से ही मैं कभी उनसे अपने कई अन्य मित्रों की तरह ‘फ्रेंडली’ नहीं हो पाया। हम सब अक्सर कहते थे कि सर, एक चलते-फिरते Institute हैं, उनसे जितना सीख सकते हो सीख लो, इसलिए मैं हमेशा उनके पास बैठा रहना चाहता था। उनकी बातें सुनना चाहता था, उनको हंसते देखते रहना चाहता था। उनको यह सब करते देखना भी हमारे लिए एक लर्निंग थी। मेरी भी यही कोशिश होती थी कि जब भी उनसे मिलूं, कुछ न कुछ सीखता रहूं।
सर अपने विद्यार्थियों पर बहुत भरोसा करते थे, इसका एक उदाहरण आपको बताता हूं। करीब 13-14 साल पुरानी बात है। मैं उस वक्त दिल्ली में था। ये वो समय था, जब व्हाट्सएप शुरू नहीं हुआ था और अधिकतर काम ई-मेल के जरिए होता था। एक दिन मेरे पास सर का फोन आया। उन्हे ई-मेल से संबंधित कुछ काम था। उन्होंने मुझे अपना ई-मेल खोलने को कहा और अपना पासवर्ड भी दिया। अपने ई-मेल का पासवर्ड सैंकड़ों कोस दूर बैठे अपने स्टूडेंट को देना मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी। इस घटना ने मेरी नजरों में सर का कद और ऊंचा कर दिया। लेकिन इस घटना में एक बात थी, जो मुझे सर के लिए बहुत परेशान कर गई और वो थी सर के द्वारा मुझे बताया गया उनका पासवर्ड। यह पासवर्ड जानने के बाद मुझे अहसास हुआ कि हमेषा हंसते हुए दिखने वाले सर अपने सीने में कितना बड़ा दुख लेकर चल रहे हैं।
आज जब सर चले गए हैं, तो हमारे लिए उनके होने के हमारे लिए और क्या-क्या और मायने थे, यह अब समझ आ रहा है। मैं कई अन्य स्कूल और कॉलेज में भी पढ़ा, लेकिन मेरे ज़हन में जो सुनहरी यादें हैं, वो सिर्फ माखनलाल यूनिवर्सिटी की ही हैं और इनका सबसे बड़ा कारण हैं पीपी सिंह सर। मुझे छात्र जीवन तक अलग-अलग मुकामों पर कई अलग-अलग दोस्त मिले, लेकिन जो असली दोस्त थे वो इस माखनलाल में ही मिले। सिर्फ दोस्त ही नहीं, सीनियर और जूनियर भी ऐसे मिले, जो आज एक सच्चे दोस्त की ही तरह हैं। यह सबकुछ पीपी सर के कारण ही हुआ। अगर वो नहीं होते, तो क्या अपने से तीन-चार साल जूनियर और सीनियर से क्या ऐसा रिश्ता बन पाता ? नहीं, यकीन के साथ नहीं। 2005-07 के दौरान एमजे करते हुए बिताए वो दो साल मेरे और हम में से कई लोगों के जीवन का सर्वश्रेष्ठ समय रहा।
असली गुरू या शिक्षक का जीवन में क्या स्थान होता है, इस बारे में हमने किताबों में तो बहुत पढ़ा था, लेकिन असल जिंदगी में इस शब्द का अहसास सर ने हमें दिलाया। गुरू गोविंद दोउ खड़े, काके लागू पाँव, बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो मिलाये । कबीर दास जी ने इस दोहे मे गुरू के पहले पैर पखारने को सबसे पहले क्यों कहा है, इसका मतलब हमें आज समझ रहा है। कितने भाग्यशाली हैं हम लोग कि पीपी सिंह सर हमारी जिंदगी में आए और उसे एक नई दिशा दी। मुझे यह कहने में कोई संकोच नाही है कि सर के बगैर, हम उस मंजिल तक कभी भी नहीं पहुँच पाते, जहां हम आज मौजूद हैं।
अंत में मुस्कुराहट के साथ सर को याद करना चाहता हूं और नवम्बर 2007 में दिल्ली में रात करीब 10 बजे आए उनके उस फोन कॉल को याद करना चाहता हूं, जब उन्होंने शरारती अंदाज में मुझसे पूछा था, रितेश, _ _ _ _ _कहां है आजकल......। उनके ये शब्द आज भी मेरे चेहने पर मुस्कान बिखेर देते हैं।
अलविदा सर....आप हर पल याद आएंगे।
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