रीतेश पुरोहित/8 जनवरी 2010
नई दिल्ली।। एक पेड़ गिरा और एएसआई जाग गया। लोथियंस रोड का कब्रिस्तान कई सालों अपनी खराब हालत को सुधारे जाने का इंतजार कर रहा था लेकिन एएसआई को होश अब आया है। टूटे हुए पेड़ों ने इसमें अहम भूमिका निभाई। इस कब्रिस्तान में अंग्रेजों की 200 साल से भी ज्यादा पुरानी 200 कब्रें और कुछ छतरियां हैं। इनमें से कई अब टूट चुकी हैं और और कुछ के अवशेष बचे हैं। अब एएसआई इस पूरे कब्रिस्तान के संरक्षण की तैयारी कर रहा है और जल्द ही यहां काम शुरू करने वाला है।
कश्मीरी गेट पर रेलवे ब्रिज के पास स्थित लोथियन कब्रिस्तान दिल्ली में ब्रिटिशों का पहला कब्रिस्तान था। 1808 से 1867 के बीच यहां ईसाई समुदाय के लोगों को दफनाया जाता था। बाद में कुछ लोगों ने इस कब्रिस्तान पर अवैध तौर पर कब्जा कर लिया और यहां पक्के मकान बना लिए। एएसआई ने भी इसे अपने संरक्षित स्मारकों की लिस्ट में शामिल कर लिया था, लेकिन इसके बाद भी कई सालों तक वे यहां बिना किसी रोकटोक के रहते रहे।
सूत्रों के मुताबिक, जब जगमोहन केंद्र सरकार में मंत्री थे, तब इस कब्रिस्तान को अवैध कब्जे से मुक्त कराया गया था। तभी यहां की बाउंड्री वॉल बनाई गई और लोहे का गेट लगाया गया। हालांकि फिर इन कब्रों के संरक्षण की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। नतीजतन मरम्मत का इंतजार कर रही इन कब्रों की हालत और खराब होने लगी। कुछ समय पहले इस कब्रिस्तान में लगे दो-तीन पेड़ टूटकर कब्र पर गिर गए, जिसके बाद अब तक कुछ कब्रें पेड़ों के नीचे दबी हुई हैं। इससे कब्रों को बुरी तरह नुकसान हुआ है। ये कब्र अभी भी पेड़ के नीचे ही दबी हुई हैं। इसके बाद एएसआई ने इस कब्रिस्तान के संरक्षण के लिए पक्का मन बनाया।
एएसआई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि पहले हमें फंड को लेकर काफी प्रॉब्लम रहती थी, इसी वजह से इन कब्रों की मरम्मत के बारे में कुछ भी तय नहीं हो पा रहा था। एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि हमने इस कब्रिस्तान का दौरा कर सभी कब्रों की स्थिति को देख लिया है। इनमें से कुछ कब्रों की मरम्मत का काम होगा और जरूरत पड़ने पर कुछ पत्थरों को बदला भी जाएगा।
हमारी पहली कोशिश यह रहेगी कि कब्रों या पिलर के जो हिस्से टूट गए हैं, उन्हें ही वापस लगाया जा सके, ताकि यह कब्रिस्तान अपने पुराने रूप में आ सके। पेड़ों के नीचे दबी कब्रों को बाहर निकाला जाएगा। पहले इस काम में खर्च होने वाले पैसे का हिसाब लगाया जाएगा और डिपार्टमेंट से अंतिम मंजूरी मिलने के बाद अगले महीने से हम काम शुरू कर देंगे।
बताया जाता है कि एक अंग्रेज अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल लोथियन केर स्कॉट के कार्यकाल के दौरान 1867 में ही इस कब्रिस्तान के पास मौजूद रेलवे ब्रिज का निर्माण हुआ था। इसी वजह से उनके नाम पर ही इस कब्रिस्तान और सड़क का नाम पड़ा। एक बेहद बड़े साइज में बना 'क्रॉस' का चिह्न इस कब्रिस्तान का मुख्य आकर्षण है। कहते हैं कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मारे गए अंग्रेजों की याद में इस ममॉरियल को बनाया गया था।
Saturday, March 27, 2010
महरौली में मिली बलबन के जमाने की कब्र
रीतेश पुरोहित / १६ देक २००९
नई दिल्ली।। महरौली में बलबन के मकबरे पर संरक्षण का काम कर रहे आर्कियॉलजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) को यहां खुदाई के दौरान सैकड़ों साल पुराने अवशेष मिले हैं। इनमें 13वीं सदी के बलबन काल की एक कब्र भी शामिल है। इस बात के कयास लगाए जा रहे हैं कि यह कब्र गुलाम वंश के शासक गयासुद्दीन बलबन की हो सकती है। इसके अलावा एएसआई को यहां कुछ पिलर, चबूतरा, मिट्टी के बर्तन, तरकश और चौसर भी मिला है। एएसआई का कहना है कि अब इस बारे में पता किया जा रहा है कि ये अवशेष किस काल के हैं।
एएसआई ने कॉमनवेल्थ गेम्स के मद्देनजर लोगों को दिल्ली की ऐतिहासिक विरासत दिखाने के लिए 46 स्मारकों को चुना है और वह इन जगहों पर संरक्षण का काम कर रहा है। महरौली के आर्कियॉलजिकल पार्क में मौजूद गुलाम वंश के शासक गयासुद्दीन बलबन के मकबरे का नाम भी इसमें शामिल है। हालांकि यहां इस मकबरे के अवशेष ही बचे हैं। सबसे पहले इंडियन नैशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज (इंटैक) ने बलबन के मकबरे का संरक्षण किया था। इसके बाद एएसआई ने इसे अपने प्रोटेक्शन में ले लिया और यहां संरक्षण और मरम्मत का काम कराया। फिलहाल मकबरे के पूर्व में बलबन के बेटे खां शाहिद की एक कब्र मौजूद है।
एएसआई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि कॉमनवेल्थ गेम्स को ध्यान में रखते हुए हमने करीब चार महीने पहले बलबन के इस मकबरे पर काम शुरू किया था। हमने यहां 3 फुट से लेकर 12 फुट तक खुदाई की और हमें स्ट्रक्चर मिलने शुरू हो गए। हमें यहां एक कब्र मिली है। यह लाल पत्थर से बनी हुई है और इससे जाहिर होता है कि ये कब्र 13वीं शताब्दी यानी बलबन काल की है, क्योंकि उसी काल में लाल पत्थर का इस्तेमाल किया जाता था। हो सकता है कि यह कब्र बलबन की हो। हमें यहां कुछ पिलर भी मिले हैं और इन्हें देखकर लगता है कि यहां राजा का दरबार लगा करता था। बाकी अवशेषों के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। अब इनकी कार्बन डेटिंग की जाएगी, जिससे पता चल सकेगा कि ये अवशेष किस काल के हैं। यह भी पता चल सकता है कि यह कब्र किसकी है। अधिकारी का कहना है कि खुदाई का काम लगभग पूरा हो चुका है और इसके बाद कंजर्वेशन का काम करेंगे और फिर ब्यूटीफिकेशन और लाइटिंग का काम किया जाएगा।
बलबन का मकबरा भारत और इस्लामिक वास्तुशास्त्र का मिलाजुला रूप है। बलबन एक तुर्किश विद्वान का बेटा था, लेकिन बचपन में मंगोलों ने उसे बेच दिया था। कुतुबुद्दीन ऐबक ने उसे आजाद कराया। उसने गुलाम वंश के ही शासक नासिरुद्दीन महमूद की बेटी से शादी की। नासिरीरुद्दीन का कोई बेटा न होने की वजह से उसकी मौत के बाद बलबन ने खुद को गुलाम वंश का शासक घोषित कर दिया। 1266 में गयासुद्दीन की पदवी के साथ उसने भारत की राजगद्दी संभाली और 1287 तक राज किया।
क्या गेम्स तक मुक्त हो पाएगा बिजरी खान का मकबरा
रीतेश पुरोहित ।। नई दिल्ली / १ दिसम्बर २009
आरकेपुरम सेक्टर 3 के मेन रोड पर स्थित है 15वीं सदी का लोदी काल का बिजरी खान का मकबरा. इसे एक ओर से झुग्गी बस्ती ने अपनी चपेट में ले रखा है, दूसरी ओर एक पब्लिक टॉइलट है। यहां रह रहे लोगों ने इमारत के सामने बनी बाउंड्री पर एक लंबी दीवार खड़ी कर ली है। बगल में एक मंदिर है। बच्चों ने इसे खेल का मैदान बना लिया है, किसी ने कपड़े सुखाने की जगह और किसी ने आरामगाह। इस सबका खमियाजा भुगतना पड़ रहा है इस मकबरे को, जो कई जगह से टूट गया है। इसके पास ही एक टेनिस स्टेडियम है, जहां कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान टेनिस की प्रतियोगिताएं होंगी। यह स्मारक दिल्ली सरकार के आकिर्यॉलजी डिपार्टमंट की देखरेख में है। डिपार्टमंट इससे वाकिफ है, लेकिन फिलहाल खुद को बेबस बता रहा है।
यहां रह रहे लोगों को इसके बारे में कुछ नहीं पता। 35 साल के रविशंकर केवल इतना जानते हैं कि यह कोई गुंबद है। उनका कहना है हम यहां बीस साल से रह रहे हैं और हमें यहां से कोई हटाने नहीं आया। न तो हमें पानी की कोई प्रॉब्लम है और न ही बिजली की। स्थानीय लोगों का कहना है कि एक-दो हफ्ते में कोई कर्मचारी यहां आता है और साफ-सफाई कर चला जाता है।
सूत्रों का कहना है कि पहले लोगों ने इस मकबरे के अंदर कब्जा कर रखा था। बाद में उन्हें यहां से निकाला गया और इसे दोनों ओर से ताला लगाकर बंद किया गया। यहां एक साइनेज भी लगाया गया था, लेकिन लोगों ने इसे तोड़ दिया, जिसके बाद इसे मकबरे के अंदर ही रख दिया गया। दिल्ली सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि हमने ऐसे 20 स्मारकों को चुना है, जिन पर कॉमनवेल्थ गेम्स तक हर हाल में काम पूरा करना है। बिजरी खान का मकबरा इस लिस्ट में शामिल है और यह इसके महत्व को जाहिर करता है। उन्होंने बताया कि इस मकबरे के आसपास की जमीन लैंड ऐंड डिवेलपमंट ऑफिस के अधीन है। हम अवैध कब्जे को नहीं हटा सकते। पहले इस मकबरे को नोटिफाई किया जाएगा। इसके लिए हम लैंड एंड डिवेलपमेंट ऑफिस से संपर्क करेंगे और उनकी मदद से यहां अतिक्रमण हटाया जाएगा। फिर हम पूरी इमारत के संरक्षण का काम शुरू करेंगे।
इंडियन नैशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट ऐंड कल्चरल हेरिटेज के दिल्ली सर्कल के संयोजक ए. जी. के. मेनन का कहना है कि अभी तक यह मकबरा संरक्षित स्मारकों की लिस्ट में शामिल नहीं है। जब तक नोटिफिकेशन करके इसे कानून के दायरे में नहीं लाया जाता, हम कुछ नहीं कर सकते। एक बार नोटिफिकेशन हो जाता है, फिर सरकार से इसे अवैध कब्जे से मुक्त करने की अपील की जा सकती है।
इस ऐतिहासिक स्मारक के पास ही डीएलटीए टेनिस स्टेडियम हैं, जहां कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान टेनिस का आयोजन किया जाएगा। जाहिर सी बात है ऐसे में सड़क के बिल्कुल पास ही मौजूद इस स्मारक पर लोगों का ध्यान जरूर जाएगा। हेरिटेज एक्सर्पट्स का मानना है कि अगर इस ऐतिहासिक स्मारक का गेम्स तक ऐसा ही हाल रहता है तो लोगों की नजर में देश की छवि बेहद खराब बनेगी।
आरकेपुरम सेक्टर 3 के मेन रोड पर स्थित है 15वीं सदी का लोदी काल का बिजरी खान का मकबरा. इसे एक ओर से झुग्गी बस्ती ने अपनी चपेट में ले रखा है, दूसरी ओर एक पब्लिक टॉइलट है। यहां रह रहे लोगों ने इमारत के सामने बनी बाउंड्री पर एक लंबी दीवार खड़ी कर ली है। बगल में एक मंदिर है। बच्चों ने इसे खेल का मैदान बना लिया है, किसी ने कपड़े सुखाने की जगह और किसी ने आरामगाह। इस सबका खमियाजा भुगतना पड़ रहा है इस मकबरे को, जो कई जगह से टूट गया है। इसके पास ही एक टेनिस स्टेडियम है, जहां कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान टेनिस की प्रतियोगिताएं होंगी। यह स्मारक दिल्ली सरकार के आकिर्यॉलजी डिपार्टमंट की देखरेख में है। डिपार्टमंट इससे वाकिफ है, लेकिन फिलहाल खुद को बेबस बता रहा है।
यहां रह रहे लोगों को इसके बारे में कुछ नहीं पता। 35 साल के रविशंकर केवल इतना जानते हैं कि यह कोई गुंबद है। उनका कहना है हम यहां बीस साल से रह रहे हैं और हमें यहां से कोई हटाने नहीं आया। न तो हमें पानी की कोई प्रॉब्लम है और न ही बिजली की। स्थानीय लोगों का कहना है कि एक-दो हफ्ते में कोई कर्मचारी यहां आता है और साफ-सफाई कर चला जाता है।
सूत्रों का कहना है कि पहले लोगों ने इस मकबरे के अंदर कब्जा कर रखा था। बाद में उन्हें यहां से निकाला गया और इसे दोनों ओर से ताला लगाकर बंद किया गया। यहां एक साइनेज भी लगाया गया था, लेकिन लोगों ने इसे तोड़ दिया, जिसके बाद इसे मकबरे के अंदर ही रख दिया गया। दिल्ली सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि हमने ऐसे 20 स्मारकों को चुना है, जिन पर कॉमनवेल्थ गेम्स तक हर हाल में काम पूरा करना है। बिजरी खान का मकबरा इस लिस्ट में शामिल है और यह इसके महत्व को जाहिर करता है। उन्होंने बताया कि इस मकबरे के आसपास की जमीन लैंड ऐंड डिवेलपमंट ऑफिस के अधीन है। हम अवैध कब्जे को नहीं हटा सकते। पहले इस मकबरे को नोटिफाई किया जाएगा। इसके लिए हम लैंड एंड डिवेलपमेंट ऑफिस से संपर्क करेंगे और उनकी मदद से यहां अतिक्रमण हटाया जाएगा। फिर हम पूरी इमारत के संरक्षण का काम शुरू करेंगे।
इंडियन नैशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट ऐंड कल्चरल हेरिटेज के दिल्ली सर्कल के संयोजक ए. जी. के. मेनन का कहना है कि अभी तक यह मकबरा संरक्षित स्मारकों की लिस्ट में शामिल नहीं है। जब तक नोटिफिकेशन करके इसे कानून के दायरे में नहीं लाया जाता, हम कुछ नहीं कर सकते। एक बार नोटिफिकेशन हो जाता है, फिर सरकार से इसे अवैध कब्जे से मुक्त करने की अपील की जा सकती है।
इस ऐतिहासिक स्मारक के पास ही डीएलटीए टेनिस स्टेडियम हैं, जहां कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान टेनिस का आयोजन किया जाएगा। जाहिर सी बात है ऐसे में सड़क के बिल्कुल पास ही मौजूद इस स्मारक पर लोगों का ध्यान जरूर जाएगा। हेरिटेज एक्सर्पट्स का मानना है कि अगर इस ऐतिहासिक स्मारक का गेम्स तक ऐसा ही हाल रहता है तो लोगों की नजर में देश की छवि बेहद खराब बनेगी।
तोड़ दीं जफर महल की जालियां
रीतेश पुरोहित ।। नई दिल्ली
महरौली में ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह से सटा करीब 200 साल पुराना जफर महल जुआरियों और शराबियों का अड्डा तो सालों से बना ही है, अब बदमाशों ने मुगल काल के आखिरी दौर की इमारतों में शुमार इस महल की संगमरमर से बनी जालियां भी तोड़ डाली हैं।
दरगाह की देखरेख में जुटे लोगों का कहना है कि इस महल के हर कोने में लोग जुआ खेलते दिखाई दे जाएंगे। जुआ खेलने वाले दिन में तो बदमाश हाथी गेट से अंदर घुस जाते हैं, लेकिन रात में चौकीदार के ताला लगाकर चले जाने के बाद इन्हें अंदर घुसने में परेशानी होती थी। हालांकि दरगाह के पीछे से महल में जाने का रास्ता है, लेकिन इस रास्ते से महल में जाने के लिए जालियों को फांदकर जाना पड़ता था। इसलिए बदमाशों ने अपनी सहूलियत के लिए ये जालियां तोड़ डालीं। उन्होंने बताया कि हमने इस बारे में कई दिनों पहले ही पुलिस के पास शिकायत दर्ज करा दी थी, लेकिन कुछ नहीं हुआ। इससे दरगाह की सुरक्षा पर भी खतरा पैदा हो गया है।
दिल्ली की ऐतिहासिक इमारतें बचाने की मुहिम में जुटी संस्था हेरिटेज ऐंड कल्चरल फोरम की अध्यक्ष ऊषा कुमार का कहना है कि लाल पत्थर से बना जहाज महल मुगल शासन की अंतिम इमारतों में से एक है, जो मुगल स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। इस लिहाज से तोड़ी गईं जालियां भी बेशकीमती थीं। उनका कहना है कि 1999 में हमने स्मारक बदहाली के मद्देनजर हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी, जिसके बाद कोर्ट ने महल के आसपास से अतिक्रमण हटाने और इसका अच्छी तरह संरक्षण करने का आदेश दिया था। लेकिन इसके बाद भी हालात में कोई बदलाव नहीं आया। मुगल शासक अकबर शाह द्वितीय ने 1842 में तीन मंजिला जफर महल का निर्माण कराया था, जिसका काफी हिस्सा अब टूट चुका है और अधिकतर जगह दीवारें ही बची हैं। अकबर शाह के बेटे और अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर ने विशाल हाथी गेट बनवाया था। बताया जाता है कि बहादुरशाह जफर ने इसे इतना बड़ा इसलिए बनवाया था, ताकि हाथी आसानी से उसके अंदर जा सके।
फिलहाल यह दोनों ही स्मारक आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की संरक्षित इमारतों की लिस्ट में शामिल हैं। एएसआई के वरिष्ठ अधिकारी इन जालियों के टूटने और यहां चल रहीं आपराधिक गतिविधियों से वाकिफ हैं, लेकिन इस ऐतिहासिक स्मारक को आपराधिक तत्वों से छुटकारा दिला पाने में खुद को मजबूर बताते हैं। एक सीनियर अधिकारी का कहना है कि हमने इस बारे में पुलिस में शिकायत की है। इस तरह के मामलों में कोई ऐक्शन के लिए हमें पुलिस पर ही डिपेंड रहना पड़ता है, क्योंकि हमारे पास इन बदमाशों से निपटने के लिए कोई और बंदोबस्त नहीं हैं। मुगल जमाने की जालियां वाकई बेशकीमती थीं, लेकिन अब हम जल्द ही नई जालियां लगा देंगे और वहां फेन्सिंग भी कर देंगे।
बहादुर शाह जफर हर साल शिकार के लिए जाते वक्त इस महल का इस्तेमाल करते थे। हर साल 'फूल वालों की सैर' उत्सव के दौरान उनको इसी महल में सम्मानित किया जाता था।
महरौली में ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह से सटा करीब 200 साल पुराना जफर महल जुआरियों और शराबियों का अड्डा तो सालों से बना ही है, अब बदमाशों ने मुगल काल के आखिरी दौर की इमारतों में शुमार इस महल की संगमरमर से बनी जालियां भी तोड़ डाली हैं।
दरगाह की देखरेख में जुटे लोगों का कहना है कि इस महल के हर कोने में लोग जुआ खेलते दिखाई दे जाएंगे। जुआ खेलने वाले दिन में तो बदमाश हाथी गेट से अंदर घुस जाते हैं, लेकिन रात में चौकीदार के ताला लगाकर चले जाने के बाद इन्हें अंदर घुसने में परेशानी होती थी। हालांकि दरगाह के पीछे से महल में जाने का रास्ता है, लेकिन इस रास्ते से महल में जाने के लिए जालियों को फांदकर जाना पड़ता था। इसलिए बदमाशों ने अपनी सहूलियत के लिए ये जालियां तोड़ डालीं। उन्होंने बताया कि हमने इस बारे में कई दिनों पहले ही पुलिस के पास शिकायत दर्ज करा दी थी, लेकिन कुछ नहीं हुआ। इससे दरगाह की सुरक्षा पर भी खतरा पैदा हो गया है।
दिल्ली की ऐतिहासिक इमारतें बचाने की मुहिम में जुटी संस्था हेरिटेज ऐंड कल्चरल फोरम की अध्यक्ष ऊषा कुमार का कहना है कि लाल पत्थर से बना जहाज महल मुगल शासन की अंतिम इमारतों में से एक है, जो मुगल स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। इस लिहाज से तोड़ी गईं जालियां भी बेशकीमती थीं। उनका कहना है कि 1999 में हमने स्मारक बदहाली के मद्देनजर हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी, जिसके बाद कोर्ट ने महल के आसपास से अतिक्रमण हटाने और इसका अच्छी तरह संरक्षण करने का आदेश दिया था। लेकिन इसके बाद भी हालात में कोई बदलाव नहीं आया। मुगल शासक अकबर शाह द्वितीय ने 1842 में तीन मंजिला जफर महल का निर्माण कराया था, जिसका काफी हिस्सा अब टूट चुका है और अधिकतर जगह दीवारें ही बची हैं। अकबर शाह के बेटे और अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर ने विशाल हाथी गेट बनवाया था। बताया जाता है कि बहादुरशाह जफर ने इसे इतना बड़ा इसलिए बनवाया था, ताकि हाथी आसानी से उसके अंदर जा सके।
फिलहाल यह दोनों ही स्मारक आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की संरक्षित इमारतों की लिस्ट में शामिल हैं। एएसआई के वरिष्ठ अधिकारी इन जालियों के टूटने और यहां चल रहीं आपराधिक गतिविधियों से वाकिफ हैं, लेकिन इस ऐतिहासिक स्मारक को आपराधिक तत्वों से छुटकारा दिला पाने में खुद को मजबूर बताते हैं। एक सीनियर अधिकारी का कहना है कि हमने इस बारे में पुलिस में शिकायत की है। इस तरह के मामलों में कोई ऐक्शन के लिए हमें पुलिस पर ही डिपेंड रहना पड़ता है, क्योंकि हमारे पास इन बदमाशों से निपटने के लिए कोई और बंदोबस्त नहीं हैं। मुगल जमाने की जालियां वाकई बेशकीमती थीं, लेकिन अब हम जल्द ही नई जालियां लगा देंगे और वहां फेन्सिंग भी कर देंगे।
बहादुर शाह जफर हर साल शिकार के लिए जाते वक्त इस महल का इस्तेमाल करते थे। हर साल 'फूल वालों की सैर' उत्सव के दौरान उनको इसी महल में सम्मानित किया जाता था।
प्रतिकूल भाग्य के लिए भी हम ही होते हैं जिम्मेदार
रीतेश पुरोहित / १३ मई २००९
पिछले दिनों इंटरनेट पर मुझे स्टीफन कॉव का एक लेख पढ़ने को मिला। कॉव पश्चिम के प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु हैं, जो लोगों का अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना, अपनी वृत्तियों को नए तरह से समझना और जीने का सलीका सिखाते हैं।
स्टीफन कॉव का जो लेख मैं ने पढ़ा उसमें उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि किस तरह अपनी जिंदगी की 90 प्रतिशत घटनाओं की वजह हम स्वयं होते हैं। आम तौर पर कहा यह जाता है कि जिंदगी की ज्यादातर बातों या घटनाओं पर हमारा कोई अख्तियार नहीं होता। गीता में तो यहां तक कहा गया है कि फल की चिंता मत करो क्योंकि फल पर भी तुम्हारा अख्तियार नहीं है। सिर्फ कर्म करो, सिर्फ अपना कर्म क्योंकि वही एक ऐसी चीज है जो पूरी तरह से तुम्हारे वश में है।
लेकिन स्टीफन कॉव ने अपने लेख में इससे बिल्कुल अलग व्याख्या प्रस्तुत की है। वे कहते हैं कि अपने जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों (90 प्रतिशत) के लिए भी हम खुद ही जिम्मेदार होते हैं। यह विचार मुझे अच्छा लगा और कुछ अलग भी, इसलिए इसे आपके साथ बांटना चाहता हूं।
स्टीफन कॉव लिखते हैं कि हम अपनी लाइफ में होने वाली 10 प्रतिशत घटनाओं को नियंत्रित नहीं कर सकते, लेकिन किसी एक घटना के बाद दिन भर होने वाली 90 फीसदी चीजों को नियंत्रित कर सकते हैं। जैसे आप ट्रैफिक में रेड लाइट को कंट्रोल नहीं कर सकते, लेकिन उसके बाद से होने वाले अपने रिएक्शन को कर सकते हैं, जो रिएक् शन आपके दिन के बाकी के घंटों के लिए काफी हद तक जिम्मेदार होते हैं।
स्टीफर एक उदाहरण देते हैं। सोचिए कि आप अपनी फैमिली के साथ ब्रेकफास्ट कर रहे हैं। बगल में बैठी बेटी आपकी शर्ट पर कॉफी गिरा देती है। आप गुस्से से आगबबूला हो जाते हैं और बेटी को जोर से डांट देते हैं। वह रोने लगती है। अब गुस्से का शिकार होती हैं अपनी पत्नी। आप शिकायत करते हैं कि कप टेबल के सिरे पर रखा हुआ था, इसी वजह से वह गिरा। इसके बाद दोनों ओर से तीखी बहस होती है। आखिरकार आप ऊपर के कमरे में जाते हैं और शर्ट चेंज करते हैं। वापस आकर देखते हैं कि बेटी अभी तक रो रही है और उसने अपना ब्रेकफास्ट खत्म नहीं किया है। उसकी स्कूल बस छूट गई है।
उधर, आपकी पत्नी को भी तुरंत ऑफिस के लिए निकलना है। इसके बाद आप कार निकालते हैं। चूंकि आप भी लेट हो चुके हैं, इसलिए 30 किमी/घंटा स्पीड लिमिट वाली सड़क पर 40 की स्पीड से गाड़ी चलाते हैं। नतीजतन ट्रैफिक फाइन के तौर पर पांच सौ रुपये चुकाने होते हैं और 15 मिनट की देरी से आप स्कूल पहुंचते हैं। बेटी गाड़ी से उतरकर आपसे बिना कुछ कहे स्कूल चली जाती है।
अंत में आप भी बीस मिनट लेट होकर ही अपने ऑफिस पहुंचते हैं। पता चलता है कि ब्रीफकेस तो आप घर पर ही भूल गए हैं। शाम को आप घर पहुंचते हैं। लेकिन पत्नी और बेटी आपसे बात नहीं करते।
मतलब आपके दिन की शुरुआत बुरी हुई और पूरा दिन ही खराब हो गया। इसके लिए आप किसे दोषी मानते हैं? कॉफी को, बेटी को, पुलिसवाले को या खुद को। जाहिर है इस सबके लिए आप खुद ही जिम्मेदार हैं। आप चाहते तो एक बुरी घटना से अपना पूरा दिन खराब होने से बचा सकते थे। कॉफी गिरने के बाद आप गुस्से पर काबू रखते हुए बेटी को समझाते और उसे आगे से सावधानी बरतने के लिए कहते। ब्रीफकेस से शर्ट निकालने के बाद समय पर नीचे आते। आपकी बेटी समय पर तैयार हो चुकी होती। वह खुशी-खुशी आपसे विदा लेती और आसानी से बस पकड़ लेती। आप 5 मिनट पहले ऑफिस पहुंचते और जोश के साथ अपने सहयोगियों से मिलते। आपका बॉस भी यह अंदाज देखकर खुश हो जाता।
अंतर देखिए। एक घटना। दो अलग रिएक्शन। नतीजे में जमीन-आसमान का फर्क। यानी यदि किसी भी घटना पर आप सोच समझकर और ठंडे दिमाग से कोई रिएक्शन देते हैं तो यह आप कई तरह की परेशानियों से बच सकते हैं।
पिछले दिनों इंटरनेट पर मुझे स्टीफन कॉव का एक लेख पढ़ने को मिला। कॉव पश्चिम के प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु हैं, जो लोगों का अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना, अपनी वृत्तियों को नए तरह से समझना और जीने का सलीका सिखाते हैं।
स्टीफन कॉव का जो लेख मैं ने पढ़ा उसमें उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि किस तरह अपनी जिंदगी की 90 प्रतिशत घटनाओं की वजह हम स्वयं होते हैं। आम तौर पर कहा यह जाता है कि जिंदगी की ज्यादातर बातों या घटनाओं पर हमारा कोई अख्तियार नहीं होता। गीता में तो यहां तक कहा गया है कि फल की चिंता मत करो क्योंकि फल पर भी तुम्हारा अख्तियार नहीं है। सिर्फ कर्म करो, सिर्फ अपना कर्म क्योंकि वही एक ऐसी चीज है जो पूरी तरह से तुम्हारे वश में है।
लेकिन स्टीफन कॉव ने अपने लेख में इससे बिल्कुल अलग व्याख्या प्रस्तुत की है। वे कहते हैं कि अपने जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों (90 प्रतिशत) के लिए भी हम खुद ही जिम्मेदार होते हैं। यह विचार मुझे अच्छा लगा और कुछ अलग भी, इसलिए इसे आपके साथ बांटना चाहता हूं।
स्टीफन कॉव लिखते हैं कि हम अपनी लाइफ में होने वाली 10 प्रतिशत घटनाओं को नियंत्रित नहीं कर सकते, लेकिन किसी एक घटना के बाद दिन भर होने वाली 90 फीसदी चीजों को नियंत्रित कर सकते हैं। जैसे आप ट्रैफिक में रेड लाइट को कंट्रोल नहीं कर सकते, लेकिन उसके बाद से होने वाले अपने रिएक्शन को कर सकते हैं, जो रिएक् शन आपके दिन के बाकी के घंटों के लिए काफी हद तक जिम्मेदार होते हैं।
स्टीफर एक उदाहरण देते हैं। सोचिए कि आप अपनी फैमिली के साथ ब्रेकफास्ट कर रहे हैं। बगल में बैठी बेटी आपकी शर्ट पर कॉफी गिरा देती है। आप गुस्से से आगबबूला हो जाते हैं और बेटी को जोर से डांट देते हैं। वह रोने लगती है। अब गुस्से का शिकार होती हैं अपनी पत्नी। आप शिकायत करते हैं कि कप टेबल के सिरे पर रखा हुआ था, इसी वजह से वह गिरा। इसके बाद दोनों ओर से तीखी बहस होती है। आखिरकार आप ऊपर के कमरे में जाते हैं और शर्ट चेंज करते हैं। वापस आकर देखते हैं कि बेटी अभी तक रो रही है और उसने अपना ब्रेकफास्ट खत्म नहीं किया है। उसकी स्कूल बस छूट गई है।
उधर, आपकी पत्नी को भी तुरंत ऑफिस के लिए निकलना है। इसके बाद आप कार निकालते हैं। चूंकि आप भी लेट हो चुके हैं, इसलिए 30 किमी/घंटा स्पीड लिमिट वाली सड़क पर 40 की स्पीड से गाड़ी चलाते हैं। नतीजतन ट्रैफिक फाइन के तौर पर पांच सौ रुपये चुकाने होते हैं और 15 मिनट की देरी से आप स्कूल पहुंचते हैं। बेटी गाड़ी से उतरकर आपसे बिना कुछ कहे स्कूल चली जाती है।
अंत में आप भी बीस मिनट लेट होकर ही अपने ऑफिस पहुंचते हैं। पता चलता है कि ब्रीफकेस तो आप घर पर ही भूल गए हैं। शाम को आप घर पहुंचते हैं। लेकिन पत्नी और बेटी आपसे बात नहीं करते।
मतलब आपके दिन की शुरुआत बुरी हुई और पूरा दिन ही खराब हो गया। इसके लिए आप किसे दोषी मानते हैं? कॉफी को, बेटी को, पुलिसवाले को या खुद को। जाहिर है इस सबके लिए आप खुद ही जिम्मेदार हैं। आप चाहते तो एक बुरी घटना से अपना पूरा दिन खराब होने से बचा सकते थे। कॉफी गिरने के बाद आप गुस्से पर काबू रखते हुए बेटी को समझाते और उसे आगे से सावधानी बरतने के लिए कहते। ब्रीफकेस से शर्ट निकालने के बाद समय पर नीचे आते। आपकी बेटी समय पर तैयार हो चुकी होती। वह खुशी-खुशी आपसे विदा लेती और आसानी से बस पकड़ लेती। आप 5 मिनट पहले ऑफिस पहुंचते और जोश के साथ अपने सहयोगियों से मिलते। आपका बॉस भी यह अंदाज देखकर खुश हो जाता।
अंतर देखिए। एक घटना। दो अलग रिएक्शन। नतीजे में जमीन-आसमान का फर्क। यानी यदि किसी भी घटना पर आप सोच समझकर और ठंडे दिमाग से कोई रिएक्शन देते हैं तो यह आप कई तरह की परेशानियों से बच सकते हैं।
दोस्त है टेक्नॉलजी
रीतेश पुरोहित/ २ जनवरी 2010
ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो हर नई तकनीक को संदेह की नजर से देखते हैं। उनमें से कई यह कहते मिल जाएंगे कि इंटरनेट ने नई पीढ़ी को बर्बाद कर दिया है। क्या सचमुच ऐसा है? मुझे एक घटना याद आती है। पिछले साल सर्दी के मौसम में ही एक दिन सुबह-सुबह अचानक मेरा मोबाइल बजा।
ममी का कॉल था। वह काफी परेशान लग रही थीं। पूछने पर बताया कि दो दिन से राहुल (मेरा बड़ा भाई) का फोन नहीं आया है और कई बार कोशिश करने के बाद भी उसका फोन नहीं लग रहा है। मैं सन्न रह गया। भैया उस वक्त इलाहाबाद में पढ़ाई कर रहा था। वह मुझे भी लगभग हर रोज कॉल कर लेता था, लेकिन याद आया कि मेरी भी उससे दो दिनों से बात नहीं हुई है। मैंने ममी को दिलासा दी और समझाया कि वो कहीं बिजी होगा या उसके मोबाइल में कोई खराबी आ गई होगी। मैंने ममी को समझा तो दिया, लेकिन खुद चिंता में पड़ गया। मैं तो दो-तीन दिनों के अंतराल पर घर फोन किया करता था, लेकिन वह ममी-पापा को फोन करना नहीं भूलता था।
मैंने उसे तुरंत कॉल किया, लेकिन कॉल कनेक्ट ही नहीं हो रहा था। मेरे पास उसके किसी दोस्त का नंबर नहीं था और इलाहाबाद में न तो हमारा कोई रिश्तेदार था और न मैं वहां किसी को जानता था। मैंने कई बार उसके दोस्त का कॉन्टेक्ट नंबर लेने के बारे में सोचा, लेकिन जब भी उससे बात होती, भूल जाता। उस दिन मैं पछता रहा था कि मैंने इतनी बड़ी लापरवाही क्यों की? मैंने अपने रूममेट्स को भी यह बात बताई। हम सब सोच में पड़ गए। चिंता बढ़ती जा रही थी और कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। अचानक आइडिया आया कि क्यों न उसे ई-मेल कर दूं, लेकिन मुश्किल यह थी कि वो नेट पर ऑनलाइन कब होगा। कब वो मेरा ई-मेल देखेगा और कब वो घर पर कॉल करेगा। फिर दिमाग में आया कि उसकी ऑर्कुट प्रोफाइल पर इलाहाबाद के कई फ्रेंड्स होंगे। ऑर्कुट के जरिए उसके किसी दोस्त का मोबाइल नंबर मिल सकता है।
मैं उसके दोस्त को फोन करके भैया का हालचाल पूछ सकता हूं। यही सोचकर मैं इंटरनेट कैफे पर गया। वहां जाकर भैया की फ्रेंड लिस्ट खंगाल ही रहा था कि अचानक उसका फोन आ गया। उसने बताया कि उसके सिमकार्ड की वैलिडिटी खत्म हो गई थी और उसकी यूनिवर्सिटी के आसपास मोबाइल रिचार्ज की कोई दुकान नहीं थी, इसलिए वो किसी को कॉल नहीं कर पाया। उससे बात करके मेरी जान में जान आई। हालांकि ऑर्कुट से कोई मदद मिलने से पहले ही उसका फोन आ गया, लेकिन तब अहसास हुआ कि एक सोशल नेटवर्किंग साइट की अहमियत क्या है। हमारी पीढ़ी टेक्नॉलजी के साथ ही आगे बढ़ी है इसलिए हम उसी की आंख से अपने जीवन को देखते हैं और अपना रास्ता ढूंढते हैं। तभी तो अपने भाई से कॉन्टेक्ट करने के लिए ऑर्कुट ही मुझे एकमात्र विकल्प नजर आया।
ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो हर नई तकनीक को संदेह की नजर से देखते हैं। उनमें से कई यह कहते मिल जाएंगे कि इंटरनेट ने नई पीढ़ी को बर्बाद कर दिया है। क्या सचमुच ऐसा है? मुझे एक घटना याद आती है। पिछले साल सर्दी के मौसम में ही एक दिन सुबह-सुबह अचानक मेरा मोबाइल बजा।
ममी का कॉल था। वह काफी परेशान लग रही थीं। पूछने पर बताया कि दो दिन से राहुल (मेरा बड़ा भाई) का फोन नहीं आया है और कई बार कोशिश करने के बाद भी उसका फोन नहीं लग रहा है। मैं सन्न रह गया। भैया उस वक्त इलाहाबाद में पढ़ाई कर रहा था। वह मुझे भी लगभग हर रोज कॉल कर लेता था, लेकिन याद आया कि मेरी भी उससे दो दिनों से बात नहीं हुई है। मैंने ममी को दिलासा दी और समझाया कि वो कहीं बिजी होगा या उसके मोबाइल में कोई खराबी आ गई होगी। मैंने ममी को समझा तो दिया, लेकिन खुद चिंता में पड़ गया। मैं तो दो-तीन दिनों के अंतराल पर घर फोन किया करता था, लेकिन वह ममी-पापा को फोन करना नहीं भूलता था।
मैंने उसे तुरंत कॉल किया, लेकिन कॉल कनेक्ट ही नहीं हो रहा था। मेरे पास उसके किसी दोस्त का नंबर नहीं था और इलाहाबाद में न तो हमारा कोई रिश्तेदार था और न मैं वहां किसी को जानता था। मैंने कई बार उसके दोस्त का कॉन्टेक्ट नंबर लेने के बारे में सोचा, लेकिन जब भी उससे बात होती, भूल जाता। उस दिन मैं पछता रहा था कि मैंने इतनी बड़ी लापरवाही क्यों की? मैंने अपने रूममेट्स को भी यह बात बताई। हम सब सोच में पड़ गए। चिंता बढ़ती जा रही थी और कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। अचानक आइडिया आया कि क्यों न उसे ई-मेल कर दूं, लेकिन मुश्किल यह थी कि वो नेट पर ऑनलाइन कब होगा। कब वो मेरा ई-मेल देखेगा और कब वो घर पर कॉल करेगा। फिर दिमाग में आया कि उसकी ऑर्कुट प्रोफाइल पर इलाहाबाद के कई फ्रेंड्स होंगे। ऑर्कुट के जरिए उसके किसी दोस्त का मोबाइल नंबर मिल सकता है।
मैं उसके दोस्त को फोन करके भैया का हालचाल पूछ सकता हूं। यही सोचकर मैं इंटरनेट कैफे पर गया। वहां जाकर भैया की फ्रेंड लिस्ट खंगाल ही रहा था कि अचानक उसका फोन आ गया। उसने बताया कि उसके सिमकार्ड की वैलिडिटी खत्म हो गई थी और उसकी यूनिवर्सिटी के आसपास मोबाइल रिचार्ज की कोई दुकान नहीं थी, इसलिए वो किसी को कॉल नहीं कर पाया। उससे बात करके मेरी जान में जान आई। हालांकि ऑर्कुट से कोई मदद मिलने से पहले ही उसका फोन आ गया, लेकिन तब अहसास हुआ कि एक सोशल नेटवर्किंग साइट की अहमियत क्या है। हमारी पीढ़ी टेक्नॉलजी के साथ ही आगे बढ़ी है इसलिए हम उसी की आंख से अपने जीवन को देखते हैं और अपना रास्ता ढूंढते हैं। तभी तो अपने भाई से कॉन्टेक्ट करने के लिए ऑर्कुट ही मुझे एकमात्र विकल्प नजर आया।
टेंशन फ्री होकर कर सकेंगे कुतुब की सैर
रीतेश पुरोहित / २१ मार्च २०१०
नई दिल्ली।। दुनियाभर से हजारों लोग हर रोज कुतुब मीनार देखने आते हैं, लेकिन यह देखकर निराश हो जाते हैं कि इस वर्ल्ड हेरिटेज साइट पर टूरिस्टों के लिए बेसिक फैसिलिटीज का भी अभाव है। यहां कोई कैंटीन नहीं है, टॉइलेट ब्लॉक ठीक नहीं हैं और पार्किंग के लिए पर्याप्त जगह नहीं है। हालांकि अब आर्कियॉलजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) जल्द ही टूरिस्टों की इन शिकायतों को दूर करेगा। यहां एक नई कैंटीन खोलने के अलावा पार्किंग और टॉइलेट व्यवस्था को भी दुरुस्त करने की तैयारी है। उम्मीद है कि कॉमनवेल्थ गेम्स तक यह काम पूरा कर लिया जाएगा।
गुलाम वंश के शासक कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा बनाई गई यह मीनार न सिर्फ दिल्ली बल्कि भारत के सबसे पसंदीदा टूरिस्ट प्लेस में से एक है। 39 लाख टूरिस्टों की संख्या के साथ 2006 में यह भारत के सबसे ज्यादा देखे जाने वाले स्मारकों की लिस्ट में पहले नंबर पर थी। इस सबके बावजूद यहां टूरिस्ट पीने के पानी के लिए भी बाहर लगी रेहडि़यों पर ही डिपेंड हैं, जो यहां दोगुने रेट पर लोगों को पानी देते हैं।
इन रेहडि़यों का पानी कितना सेफ हैं, कोई नहीं जानता। खुद एएसआई अधिकारी भी इस बात को मानते हैं। उनका कहना है कि हमने आज तक नहीं देखा कि किसी एमसीडी के अधिकारी ने इन कियोस्क के पानी की जांच की हो। हमने इसके लिए कई बार एमसीडी के अधिकारियों से शिकायत भी की, लेकिन कुछ नहीं हुआ। लोग नाश्ते या खाने के लिए भी पास ही मौजूद ऐसी दुकानों और रेहडि़यों का रुख करते हैं।
हालांकि कुतुब कॉम्प्लेक्स में दो टॉइलेट्स हैं, लेकिन टिकट काउंटर के पास मौजूद टॉइलेट ब्लॉक बहुत छोटे हैं। कैंटीन के लिए एक जगह रिजर्व है, लेकिन यह हमेशा बंद रहती है। एएसआई अधिकारी ने बताया कि कुछ साल पहले इंडियन टूरिजम डिवेलपमेंट कॉर्पोरेशन (आईटीडीसी) ने यह टॉइलेट और कैंटीन बनवाई थीं। इस छोटी कैंटीन में इतनी जगह ही नहीं है कि वहां सारा खाने-पीने का सामान रखा जा सके या कुछ पकाया जा सके, इसलिए इस कैंटीन को खोला ही नहीं गया। हालांकि अब हम इस कैंटीन का स्पेस बढ़ाएंगे। इससे लोगों को अच्छे फूड आइटम्स मिल सकेंगे।
एएसआई के एक आला अधिकारी ने बताया कि कुतुब मीनार की पार्किंग में फिलहाल 50-60 गाड़ियों के लिए जगह है, लेकिन वीक एंड या छुट्टियों के दौरान भीड़ ज्यादा होने की स्थिति में गाड़ी पार्क करने की बहुत बड़ी समस्या पैदा हो जाती है।
ऐसे में इस पार्किंग स्पेस को बढ़ाया जाएगा। नई पार्किंग में टू-वीलर, कार, बस के लिए पार्किंग की जगह अलग-अलग होगी। विकलांगों के लिए अलग से व्यवस्था होगी। उन्होंने बताया कि पार्किंग और टॉइलेट्स बनाने के बारे में सभी औपचारिकताएं पूरी कर ली गई हैं। उम्मीद है कि जल्द ही यहां काम शुरू हो जाएगा।
नई दिल्ली।। दुनियाभर से हजारों लोग हर रोज कुतुब मीनार देखने आते हैं, लेकिन यह देखकर निराश हो जाते हैं कि इस वर्ल्ड हेरिटेज साइट पर टूरिस्टों के लिए बेसिक फैसिलिटीज का भी अभाव है। यहां कोई कैंटीन नहीं है, टॉइलेट ब्लॉक ठीक नहीं हैं और पार्किंग के लिए पर्याप्त जगह नहीं है। हालांकि अब आर्कियॉलजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) जल्द ही टूरिस्टों की इन शिकायतों को दूर करेगा। यहां एक नई कैंटीन खोलने के अलावा पार्किंग और टॉइलेट व्यवस्था को भी दुरुस्त करने की तैयारी है। उम्मीद है कि कॉमनवेल्थ गेम्स तक यह काम पूरा कर लिया जाएगा।
गुलाम वंश के शासक कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा बनाई गई यह मीनार न सिर्फ दिल्ली बल्कि भारत के सबसे पसंदीदा टूरिस्ट प्लेस में से एक है। 39 लाख टूरिस्टों की संख्या के साथ 2006 में यह भारत के सबसे ज्यादा देखे जाने वाले स्मारकों की लिस्ट में पहले नंबर पर थी। इस सबके बावजूद यहां टूरिस्ट पीने के पानी के लिए भी बाहर लगी रेहडि़यों पर ही डिपेंड हैं, जो यहां दोगुने रेट पर लोगों को पानी देते हैं।
इन रेहडि़यों का पानी कितना सेफ हैं, कोई नहीं जानता। खुद एएसआई अधिकारी भी इस बात को मानते हैं। उनका कहना है कि हमने आज तक नहीं देखा कि किसी एमसीडी के अधिकारी ने इन कियोस्क के पानी की जांच की हो। हमने इसके लिए कई बार एमसीडी के अधिकारियों से शिकायत भी की, लेकिन कुछ नहीं हुआ। लोग नाश्ते या खाने के लिए भी पास ही मौजूद ऐसी दुकानों और रेहडि़यों का रुख करते हैं।
हालांकि कुतुब कॉम्प्लेक्स में दो टॉइलेट्स हैं, लेकिन टिकट काउंटर के पास मौजूद टॉइलेट ब्लॉक बहुत छोटे हैं। कैंटीन के लिए एक जगह रिजर्व है, लेकिन यह हमेशा बंद रहती है। एएसआई अधिकारी ने बताया कि कुछ साल पहले इंडियन टूरिजम डिवेलपमेंट कॉर्पोरेशन (आईटीडीसी) ने यह टॉइलेट और कैंटीन बनवाई थीं। इस छोटी कैंटीन में इतनी जगह ही नहीं है कि वहां सारा खाने-पीने का सामान रखा जा सके या कुछ पकाया जा सके, इसलिए इस कैंटीन को खोला ही नहीं गया। हालांकि अब हम इस कैंटीन का स्पेस बढ़ाएंगे। इससे लोगों को अच्छे फूड आइटम्स मिल सकेंगे।
एएसआई के एक आला अधिकारी ने बताया कि कुतुब मीनार की पार्किंग में फिलहाल 50-60 गाड़ियों के लिए जगह है, लेकिन वीक एंड या छुट्टियों के दौरान भीड़ ज्यादा होने की स्थिति में गाड़ी पार्क करने की बहुत बड़ी समस्या पैदा हो जाती है।
ऐसे में इस पार्किंग स्पेस को बढ़ाया जाएगा। नई पार्किंग में टू-वीलर, कार, बस के लिए पार्किंग की जगह अलग-अलग होगी। विकलांगों के लिए अलग से व्यवस्था होगी। उन्होंने बताया कि पार्किंग और टॉइलेट्स बनाने के बारे में सभी औपचारिकताएं पूरी कर ली गई हैं। उम्मीद है कि जल्द ही यहां काम शुरू हो जाएगा।
Monday, March 1, 2010
कुतुब की बावली : यह हेरिटेज भी बेहाल
८ फरवरी २०१०
रीतेश पुरोहित ।। नई दिल्ली
मुख्यमंत्री शीला दीक्षित यह तो मानती हैं कि दिल्ली के जल सोतों को भी विरासत के तौर पर देखा जाना चाहिए, लेकिन कई ऐतिहासिक इमारतों की तरह ये जल सोत भी खत्म हो चुके हैं या खत्म होने के कगार पर हैं। महरौली में ख्वाजा कुतुबुदृदीन बख्तियार काकी की दरगाह परिसर में मौजूद सैकड़ों साल पुरानी कुतुब की बावली की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। वैसे तो यह बावली गुलाम वंश के जमाने की है, लेकिन न तो इसे एएसआई का संरक्षण हासिल है और न ही दिल्ली सरकार के आर्कियॉलजी डिपार्टमेंट का। 2003 में यह बावली डीडीए के पास थी, उसके बाद वक्फ बोर्ड ने इसे अपनी संपत्ति माना, लेकिन इसे बचाने में किसी ने दिलचस्पी नहीं दिखाई। नतीजतन आसपास की गंदगी इस बावली में फेंकी जा रही है और अब यह अपनी अंतिम सांसें गिन रही है।
महरौली में ख्वाजा बख्तियार काकी की मजार पर रोज सैकड़ों लोग मत्था टेकने आते हैं, लेकिन यहां मौजूद बावली के बारे में कम ही लोगों को पता है। कुछ साल पहले तक इस बावली में पानी था, लेकिन अब यह पूरी तरह सूख चुकी है। फिलहाल यह बंद है और लोगों को इसके नीचे जाने की इजाजत नहीं है। करीब आठ साल पहले दिल्ली हाई कोर्ट में पेश की गई लिस्ट में डीडीए को इस बावली का केयरटेकर बताया गया था, लेकिन इसके एक साल बाद हाई कोर्ट में पेश की गई रिवाइज्ड लिस्ट में इस बावली को दिल्ली वक्फ बोर्ड की लिस्ट में दिखाया गया। सूत्रों का कहना है कि दरगाह से जुड़े सारे मसलों की देखरेख के लिए नियुक्त वक्फ बोर्ड की कमिटी भी मानती है कि लोगों ने इस बावली को कूड़ा फेंकने की जगह में तब्दील कर दिया है। कमिटी के मैनेजर फैजान अहमद मानते हैं कि इस बावली की साफ-सफाई की जिम्मेदारी कमिटी की है, लेकिन उनका कहना है कि अगर हम खुद यह काम करवाते हैं तो हमें आसपास के लोगों का विरोध झेलना पड़ सकता है। हम नहीं चाहते कि इस पवित्र जगह पर कोई ऐसी वैसी हरकत हो, इसलिए इसके लिए हम एमसीडी को कई बार पत्र लिख चुके हैं।
दिल्ली में जल सोतों को बचाने की मुहिम से लंबे समय से जुड़े विनोद जैन बताते हैं कि हाई कोर्ट ने अपने आदेश में साफ कहा था कि कोई भी जल सोत जैसे तालाब, झील, बावली आदि की सफाई की जिम्मेदारी उसी एजेंसी की होगी, जिसकी जमीन पर वह जल स्रोत मौजूद है। अगर कोई इसके पीछे अपनी मजबूरी बताता है, तो इसका मतलब यह हुआ कि वह अपनी जिम्मेदारी से बच रहा है। जल सोत से जुड़े इस पूरे मसले के लिए हाई कोर्ट ने एक मॉनिटरिंग कमिटी का गठन किया था और दिल्ली सरकार के चीफ सेक्रेटरी राकेश मेहता को इसका अध्यक्ष बनाया था। विनोद का कहना है कि अगर वक्फ बोर्ड वाकई इस बावली को बचाना चाहता है, तो वह इस बारे में दिल्ली सरकार के चीफ सेक्रेटरी से संपर्क क्यों नहीं करता। उनका कहना है कि दिल्ली के इन जल सोतों से जुड़ी एजेंसियां एक तरफ तो उन्हें अपने हाथ से खोना भी नहीं चाहतीं और दूसरी तरफ उनको बचाने की कोशिश भी नहीं करतीं।
मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने एक हफ्ते पहले ही इंटैक के एक कार्यक्रम में कहा था कि दिल्ली के जल सोत भी हमारी विरासत हैं और उन्हें भी ऐतिहासिक धरोहर के तौर पर देखा जाना चाहिए। दिल्ली में कुआं, तालाब, बावली समेत 629 जल सोत हैं। इनमें से 15 एएसआई के पास, डीडीए के पास 118, दिल्ली सरकार के पास 469 व सीपीडब्ल्यूडी और पीडब्ल्यूडी के पास 4-4 हैं।
रीतेश पुरोहित ।। नई दिल्ली
मुख्यमंत्री शीला दीक्षित यह तो मानती हैं कि दिल्ली के जल सोतों को भी विरासत के तौर पर देखा जाना चाहिए, लेकिन कई ऐतिहासिक इमारतों की तरह ये जल सोत भी खत्म हो चुके हैं या खत्म होने के कगार पर हैं। महरौली में ख्वाजा कुतुबुदृदीन बख्तियार काकी की दरगाह परिसर में मौजूद सैकड़ों साल पुरानी कुतुब की बावली की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। वैसे तो यह बावली गुलाम वंश के जमाने की है, लेकिन न तो इसे एएसआई का संरक्षण हासिल है और न ही दिल्ली सरकार के आर्कियॉलजी डिपार्टमेंट का। 2003 में यह बावली डीडीए के पास थी, उसके बाद वक्फ बोर्ड ने इसे अपनी संपत्ति माना, लेकिन इसे बचाने में किसी ने दिलचस्पी नहीं दिखाई। नतीजतन आसपास की गंदगी इस बावली में फेंकी जा रही है और अब यह अपनी अंतिम सांसें गिन रही है।
महरौली में ख्वाजा बख्तियार काकी की मजार पर रोज सैकड़ों लोग मत्था टेकने आते हैं, लेकिन यहां मौजूद बावली के बारे में कम ही लोगों को पता है। कुछ साल पहले तक इस बावली में पानी था, लेकिन अब यह पूरी तरह सूख चुकी है। फिलहाल यह बंद है और लोगों को इसके नीचे जाने की इजाजत नहीं है। करीब आठ साल पहले दिल्ली हाई कोर्ट में पेश की गई लिस्ट में डीडीए को इस बावली का केयरटेकर बताया गया था, लेकिन इसके एक साल बाद हाई कोर्ट में पेश की गई रिवाइज्ड लिस्ट में इस बावली को दिल्ली वक्फ बोर्ड की लिस्ट में दिखाया गया। सूत्रों का कहना है कि दरगाह से जुड़े सारे मसलों की देखरेख के लिए नियुक्त वक्फ बोर्ड की कमिटी भी मानती है कि लोगों ने इस बावली को कूड़ा फेंकने की जगह में तब्दील कर दिया है। कमिटी के मैनेजर फैजान अहमद मानते हैं कि इस बावली की साफ-सफाई की जिम्मेदारी कमिटी की है, लेकिन उनका कहना है कि अगर हम खुद यह काम करवाते हैं तो हमें आसपास के लोगों का विरोध झेलना पड़ सकता है। हम नहीं चाहते कि इस पवित्र जगह पर कोई ऐसी वैसी हरकत हो, इसलिए इसके लिए हम एमसीडी को कई बार पत्र लिख चुके हैं।
दिल्ली में जल सोतों को बचाने की मुहिम से लंबे समय से जुड़े विनोद जैन बताते हैं कि हाई कोर्ट ने अपने आदेश में साफ कहा था कि कोई भी जल सोत जैसे तालाब, झील, बावली आदि की सफाई की जिम्मेदारी उसी एजेंसी की होगी, जिसकी जमीन पर वह जल स्रोत मौजूद है। अगर कोई इसके पीछे अपनी मजबूरी बताता है, तो इसका मतलब यह हुआ कि वह अपनी जिम्मेदारी से बच रहा है। जल सोत से जुड़े इस पूरे मसले के लिए हाई कोर्ट ने एक मॉनिटरिंग कमिटी का गठन किया था और दिल्ली सरकार के चीफ सेक्रेटरी राकेश मेहता को इसका अध्यक्ष बनाया था। विनोद का कहना है कि अगर वक्फ बोर्ड वाकई इस बावली को बचाना चाहता है, तो वह इस बारे में दिल्ली सरकार के चीफ सेक्रेटरी से संपर्क क्यों नहीं करता। उनका कहना है कि दिल्ली के इन जल सोतों से जुड़ी एजेंसियां एक तरफ तो उन्हें अपने हाथ से खोना भी नहीं चाहतीं और दूसरी तरफ उनको बचाने की कोशिश भी नहीं करतीं।
मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने एक हफ्ते पहले ही इंटैक के एक कार्यक्रम में कहा था कि दिल्ली के जल सोत भी हमारी विरासत हैं और उन्हें भी ऐतिहासिक धरोहर के तौर पर देखा जाना चाहिए। दिल्ली में कुआं, तालाब, बावली समेत 629 जल सोत हैं। इनमें से 15 एएसआई के पास, डीडीए के पास 118, दिल्ली सरकार के पास 469 व सीपीडब्ल्यूडी और पीडब्ल्यूडी के पास 4-4 हैं।
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