Monday, April 19, 2010

पुरातत्व : सिर्फ कानून बनाने से क्या होगा

रीतेश पुरोहित

29 march 2010
नई दिल्ली।। 16 मार्च 2010 को संसद ने द एनशिएंट मॉन्यूमेंट्स ऐंड आर्कियॉलजिकल साइट्स ऐंड रिमेन्स (अमेंडमेंट ऐंड वेलिडेशन) ऐक्ट पास कर दिया। इसके साथ ही कॉमनवेल्थ गेम्स से जुड़े कुछ प्रोजेक्टों को पूरी तरह कानूनी मान्यता मिल गई। 1958 के ऐक्ट से तुलना करें, तो नए कानून को पहले से कहीं ज्यादा कड़ा किया गया है। एक्सपर्ट्स इसे अच्छा कदम मानते हैं, लेकिन उनका कहना है कि इससे तभी फायदा होगा, जब इन नियमों का सख्ती से पालन हो।
क्या है नए ऐक्ट में
नए ऐक्ट में कहा गया है कि केंद्र सरकार नैशनल मॉन्यूमेंट अथॉरिटी का गठन करेगी। यह कमिटी किसी संरक्षित स्मारक या क्षेत्र के महत्व को सामने लाने के लिए केंद्र सरकार से सिफारिश करेगी। ग्रेडिंग से यह पता चल सकेगा कि संबंधित स्मारक का क्या महत्व है। अथॉरिटी यह सुझाव भी देगी कि इस ऐक्ट के नियमों को किस तरह लागू किया जा सकता है। साथ ही इस बात पर भी ध्यान देगी कि रेग्युलेटेड एरिया (संरक्षित स्मारक के 300 मीटर के दायरे) में प्रस्तावित डिवेलपमेंट प्रोजेक्टों से संबंधित स्मारक पर क्या प्रभाव पड़ेगा। कुछ मायनों में इस अथॉरिटी को सिविल कोर्ट की तरह पावर दी गई है। जैसे अथॉरिटी को इस बात का अधिकार होगा कि वह किसी भी व्यक्ति को बयान देने, किसी कागजात को अपने सामने पेश करने के लिए बुला सके।
इस ऐक्ट में बताया गया है कि किसी पुरातत्व अधिकारी के अलावा कोई भी संरक्षित स्मारक या एरिया के 100 मीटर के दायरे (प्रतिबंधित क्षेत्र) में निर्माण या खुदाई का काम नहीं कर सकता। हालांकि अगर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण(एएसआई) को यह लगता है कि सार्वजनिक उपयोग के लिए इस दायरे में कोई प्रोजेक्ट या डिवेलपमेंट वर्क जरूरी है, तो वह इसके लिए अपनी अनुमति दे सकता है। हालांकि यह साबित होना जरूरी है कि इस प्रोजेक्ट या वर्क से संबंधित स्मारक को कोई अगर कोई व्यक्ति किसी संरक्षित इमारत के 300 मीटर के दायरे यानी नियंत्रित क्षेत्र में निर्माण कार्य करना चाहता है तो उसे इसके लिए उसे एएसआई के संबंधित अधिकारी से अनुमति लेनी होगी।
नए ऐक्ट में यह प्रावधान है कि केंद्र सरकार नैशनल मॉन्यूमेंट अथॉरिटी की सिफारिश पर किसी भी स्मारक के प्रतिबंधित और नियंत्रित क्षेत्र को बढ़ा सकती है।
एएसआई को किसी एक्सपर्ट हेरिटेज बॉडी के साथ मिलकर हर संरक्षित स्मारक के लिए अलग से हेरिटेज उपनियम (बाई-लॉज ) बनाने होंगे।
अगर कोई व्यक्ति किसी भी संरक्षित स्मारक के नियंत्रित क्षेत्र में किसी भी तरह का निर्माण कार्य करने का दोषी पाया जाता है, तो उसे दी जाने वाली अधिकतम सजा तीन महीने से बढ़ाकर दो साल कर दी गई है, जबकि जुर्माने की रकम को पांच हजार से बढ़ाकर 1 लाख रुपये कर दिया गया है।

अगर यह बात साबित होती है कि केंद्र सरकार के किसी अधिकारी की सहमति से प्रतिबंधित या नियंत्रित क्षेत्र में गैरकानूनी तरीके से निर्माण, पुननिर्माण या मरम्मत का काम चल रहा है तो उसे तीन साल तक की कैद या जुर्माना किया जा सकता है।

विशेषज्ञ की राय
दिल्ली हाई कोर्ट की सीनियर वकील और हेरिटेज ऐंड कल्चरल फोरम की अध्यक्ष ऊषा कुमार कहती हैं कि यह नया ऐक्ट काफी अच्छा है। नियम काफी सख्त किए गए हैं, लेकिन अफसोस की बात यह है कि ऐतिहासिक स्मारकों से संबंधित कानूनों की रोज धज्जियां उड़ती हैं। हर संरक्षित स्मारक के 100 मीटर के दायरे में रातों-रात बहुमंजिला इमारत खड़ी हो जाती हैं, लेकिन किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। सरकारी अधिकारी आंखें मूंदे रहते हैं या फिर उनमें दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव है। किसी संरक्षित स्मारक के 100 मीटर के दायरे में कोई भी निर्माण कार्य न करने का नियम 1992 से लागू है, लेकिन साउथ दिल्ली में ऐसे कितने ही मकान और बिल्डिंगें हैं, जो 1992 के बाद बनीं और वे किसी न किसी संरक्षित स्मारक के 100 मीटर के दायरे में आती थीं। साउथ दिल्ली में ही मौजूद सराय शाहजी और बेगमपुरी मस्जिद की हालत देखिए। हाई कोर्ट ने कितनी ही बार एएसआई से इनके आसपास मौजूद अतिक्रमण हटाने को कहा है, लेकिन आज तक आदेश का पालन नहीं हुआ।
पहले इस बात पर विवाद होता था कि किसी संरक्षित स्मारक के 100 मीटर और इससे आगे 200 मीटर के दायरे को कहां से नापा जाए। सरकारी अधिकारी अपनी मजीर् के मुताबिक और फायदे के लिए, हेरिटेज साइट की किसी भी जगह से 100 मीटर की दूरी तय कर देते थे, लेकिन नए ऐक्ट में इसे साफ किया गया है। नए ऐक्ट के मुताबिक, नोटिफिकेशन में संरक्षित स्मारक की जहां से शुरुआत का उल्लेख है, वहीं से उसका नियंत्रित एरिया माना जाएगा। इस नए प्रावधान इससे आम लोगों को फायदा होगा।
नए ऐक्ट में कॉमनवेल्थ गेम्स से जुड़े कुछ प्रोजेक्टों समेत कई और निर्माणों को मान्यता दी गई है, जो तत्कालीन कानून के मुताबिक गैरकानूनी थे। इसका मतलब यह हुआ कि जिन लोगों ने कानून का पालन करते हुए संरक्षित स्मारक के 100 मीटर के दायरे में कोई निर्माण नहीं किया, उन्होंने बहुत बड़ी गलती की? सरकार ने कानून मानने वाले लोगों के साथ धोखा किया।

अब एएसआई को 3 महीने और 15 दिन में यह फैसला करना होगा कि नियंत्रित क्षेत्र में मौजूद इमारत में निर्माण की अनुमति दी जाए या नहीं। साथ ही अगर अनुमति देने के बाद एएसआई को लगता है कि संबंधित निर्माण की वजह से स्मारक पर किसी तरह का असर पड़ सकता है या नुकसान पहुंच सकता है, तो वह अनुमति रद्द कर सकता है। पुराने ऐक्ट में यह प्रावधान नहीं था।
नए कानून के सेक्शन 20-एन(1) में केंद सरकार को यह पावर दी गई है कि वह कुछ विशेष परिस्थितियों में नैशनल मॉन्यूमेंट अथॉरिटी को हटा (सुपरसीड) सकती है।
नए ऐक्ट में एक खामी है। एएसआई को अभी कोई अतिक्रमण हटाओ दस्ता बनाने का अधिकार नहीं दिया गया है, जिसके जरिए वह संरक्षित इमारत के प्रतिबंधित क्षेत्र में हो रहे निर्माण को रुकवा सके या अतिक्रमण को हटा सके। एएसआई को इसके लिए अब भी पुलिस पर ही निर्भर रहना पड़ेगा। अवैध निर्माण के लिए सजा और जुर्माने को बढ़ाया गया है, लेकिन अब भी इस बात की संभावना बेहद कम है कि किसी को यह सजा दी जाएगी।

नया कानून क्यों
पुराने ऐक्ट के तहत कोई भी किसी भी स्थिति में स्मारक के 100 मीटर के दायरे में निर्माण की इजाजत नहीं थी, लेकिन एएसआई की विशेषज्ञ सलाहकार कमिटी ने कॉमनवेल्थ गेम्स के प्रोजेक्टों समेत कई निर्माणों को अपनी अनुमति दे दी थी, लेकिन दिल्ली हाई कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए इस कमिटी को गैरकानूनी करार दिया था और एएसआई को आदेश दिया था कि वह तुरंत इन सभी जगहों पर चल रहे निर्माण को तुरंत रुकवाए। ऐसे में दिल्ली में चल रहे गेम्स के कुछ प्रोजेक्ट पर तलवार लटक गई थी। इसके बाद सरकार ने कानून में संशोधन का मन बनाया। हालांकि उस वक्त संसद सत्र नहीं चल रहा था, इसलिए गेम्स प्रोजेक्टों पर लगी रोक हटाने के लिए आनन-फानन में अध्यादेश लाया गया और अब संसद के मौजूदा सत्र में बिल को पेश कर कानूनी शक्ल दे दी गई है।

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bhagvan kalbhairav ka anokha mandir

रीतेश पुरोहित


मध्य प्रदेश के शहर उज्जैन को मंदिरों का शहर कहा जाता है। महाकालेश्वर की नगरी के साथ-साथ इसका ऐतिहासिक महत्व होने के कारण इस शहर में कई दर्जनों मंदिर हैं। वैसे तो काफी लोग यहां भगवान महाकाल के दर्शन करने आते हैं, लेकिन कालभैरव के मंदिर का यहां अपना ही महत्व है। यह मंदिर शहर से करीब आठ किलोमीटर दूर भैरवगढ़ नाम की जगह पर मौजूद है। धार्मिक मान्यता के मुताबिक, कालभैरव को यह वरदान है कि भगवान शिव की पूजा से पहले उनकी पूजा होगी। ऐसे में उज्जैन जाने पर इस मंदिर में आपके न जाने से सकता है कि आपको महाकाल के दर्शन का आधा ही लाभ मिले।
दिलचस्प बात यह है कि भगवान कालभैरव की मूर्ति पर प्रसाद के तौर पर केवल शराब ही चढ़ाई जाती है और शराब से भरे हुए प्याले को मूर्ति के मुंह से लगाने पर वह देखते ही देखते खाली हो जाता है। मंदिर के बाहर भगवान कालभैरव को चढ़ाने के लिए देसी शराब की आठ से दस दुकानें लगी हैं। खास बात यह है कि इन दुकानों में लाइसेंस न होने की वजह से विदेशी ब्रैंड की शराब नहीं मिलती। वैसे, ये शहर से आपके लिए विदेशी शराब मंगवा जरूर सकते हैं।
मंदिर में शराब चढ़ाने की गाथा भी बेहद दिलचस्प है। यहां के पुजारी बताते हैं कि स्कंद पुराण में इस जगह और इसके धार्मिक महत्व का जिक्र है। इसके अनुसार चारों वेदों के रचियता भगवान ब्रह्मा ने जब पांचवें वेद की रचना का फैसला किया, तो उन्हें इस काम से रोकने के लिए देवता भगवान शिव की शरण में गए। लेकिन ब्रह्मा जी ने उनकी बात नहीं मानी। इस पर शिवजी ने क्रोधित होकर अपने तीसरे नेत्र से बालक बटुक भैरव को प्रकट किया। इस उग्र स्वभाव के बालक ने गुस्से में आकर ब्रह्मा जी का पांचवा मस्तक काट दिया। इससे लगे ब्रह्मा हत्या के पाप को दूर करने के लिए वह अनेक स्थानों पर गए, लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिली। तब भैरव ने भगवान शिव की आराधना की और उन्होंने भैरव को बताया कि उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर ओखर श्मशान के पास तपस्या करने से उन्हें इस पाप से मुक्ति मिलेगी। तभी से यहां काल भैरव की पूजा हो रही है और धीरे-धीरे यहां एक बड़ा मंदिर बन चुका है। वैसे, इसका जीर्णोद्धार परमार वंश के राजाओं ने करवाया था।
रात दस बजे तक खुले रहने वाले इस मंदिर में रोजाना 200 से 250 क्वॉटर शराब चढ़ाई जाती है। इसकी वजह है कि कालभैरव की तामसिक पूजा। हालांकि, पहले यह मांस, मछली, मदिरा, मुदा और मैथुन के प्रसाद से पूरी होती थी, लेकिन अब चढ़ावा बस शराब तक सीमित रह गया है। मूर्ति को पिलाई जाने वाली यह शराब आखिरकार चली कहां जाती है, यह अपने-आप में एक अबूझ सवाल है। लोगों की मानें, तो यह सारी शराब भगवान की मूर्ति पीती है, लेकिन इसका पता लगाने के लिए 2001 में मंदिर के आस-पास हुई खुदाई में मिट्टी में शराब की मौजूदगी नहीं पाई गई।

ऑफिस में टाइम पास, नहीं है राइट चॉइस

रीतेश पुरोहित

5 jan 2009
नई दिल्ली : 23 साल के सॉफ्टवेयर एंजीनियर अनुराग त्रिपाठी अविवाहित हैं। रात के 8 बजे हैं और वह अभी तक ऑफिस में कंप्यूटर के सामने बैठे हैं। पिछले तीन घंटे में वह पांच बार कॉफी पी चुके हैं। दर्जनों दोस्तों के मोबाइल घनघना चुके हैं। अनुराग इसकी वजह बताते हुए कहते हैं 'घर जाकर भी मैं क्या करूंगा। यहां सब कुछ है। कंप्यूटर, कॉफी, फ्री का फोन, एसी। मैं यहां अपने मन का काम कर सकता हूं।' कई सॉफ्टवेयर कंपनियों और रिसर्च सेंटरों में इस तरह का नजारा आम है। यहां अविवाहित युवक अपनी कंपनी में देर रात तक टाइम पास करते रहते हैं क्योंकि उनके पास करने के लिए कुछ और नहीं होता। हालांकि एच. आर. (ह्यूमन रिसॉर्स) से जुड़े लोग इसे सही नहीं मानते।
सॉफ्टवेयर कंपनी क्रीडेंस सिस्टम्स में मैनिजर (एच.आर.) गौरव सिंह चौहान कहते हैं कि आजकल कंपनियां खुद ही कर्मचारियों की फ्रीडम की बात करती हैं। पर्सनल यूज के लिए कंपनी का सामान इस्तेमाल करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन देर रात तक ऑफिस में बैठे रहने से वर्क कल्चर पर बुरा असर पड़ता है। ऑफिस में देर तक बैठे देखकर बॉस की उम्मीदें आपसे काफी बढ़ जाती हैं। वह आपको अधिक काम देने लगते हैं और ऑफिस के दूसरे लोगों से ओवरटाइम की उम्मीद करते हैं। चौहान का कहना है कि जब तक आप अनमैरिड हैं तब तक तो यह ठीक लगता है लेकिन शादी के बाद परिवार आपकी प्राथमिकता में शुमार हो जाता है और आप ऑफिस में ज्यादा समय नहीं दे पाते। इसके बाद बॉस की नजरों में भी आपकी इमिज खराब हो जाती है।
होम फर्निशिंग एक्सपोर्ट कंपनी में एच. आर. इगेक्युटिव नितिन सिंह भी इन बातों से सहमत हैं। उनका कहना है कि इन युवा प्रफेशनल्स को ऑफिस में देर रात तक रुकने के बजाय कुछ और करना चाहिए। जैसे वह डांस सीखें, कोई नई भाषा सीखें। अपना पसंदीदा गेम खेलें। करीबियों को वक्त दें। उनका कहना है कि हममें से कई लोग सोचते हैं कि देर रात तक काम करने का मतलब होता है, कड़ी मेहनत करना या फुल कमिटमेंट देना। हालांकि ऐसा नहीं है। लोगों को समझना चाहिए कि ऐसा करके वह अपना समय ही खराब कर रहे हैं।
मैक्स हेल्थकेयर में सायकायट्रिस्ट समीर पारिख कहते हैं कि काफी युवा प्रफेशनल पूरी तरह ऑर्गेनाइज्ड नहीं होते। वह परिवार से दूर रहते हैं। कई बार ऑफिस में उनकी कुछ लोगों से अच्छी दोस्ती हो जाती है, इसलिए भी वह ऑफिस में रुकना और हंसी ठिठोली करना पसंद करते हैं। उनका कहना है कि लोग कई बार मनोरंजन के लिए ऑफिस में बैठते हैं लेकिन यह तनाव कम करने में किसी तरह की मदद नहीं करता। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने बॉस को यह जताना चाहते हैं कि वह ऑफिस में बहुत ज्यादा काम करते हैं।

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175 साल बाद भी वही महक 'फूल वालों की सैर' में

रीतेश पुरोहित

9 oct 2009
नई दिल्ली।। मुगल शासक अकबर शाह की बेगम जीनत महल जब अपनी मन्नत पूरी होने पर महरौली स्थित ख्वाजा बख्तियार काकी की मजार के लिए अपने किले से निकली थीं, तो दिल्ली वाले बेहद गर्मजोशी के साथ इस काफिले में शामिल हुए थे। 'फूल वालों की सैर' नाम से मशहूर हुए इस काफिले को बाद में त्योहार की तरह मनाया जाने लगा। आज करीब 175 साल बाद भी ख्वाजा की दरगाह पर ऐसी ही गर्मजोशी देखी जा सकती है। हर धर्म के लोग मजार पर मत्था टेकने आ रहे हैं और ख्वाजा से दुआएं मांग रहे हैं। हर साल सितंबर-अक्टूबर के महीने में मनाए जाने वाले इस मेले की गुरुवार को शुरुआत हो गई है और शनिवार को मजार से कुछ दूरी पर स्थित जहाज महल में रंगारंग कार्यक्रमों का आयोजन किया जाएगा।
असल में मुगल शासक अकबर शाह अपने दूसरे बेटे मिर्जा जहांगीर को शाही वारिस बनाना चाहते थे, लेकिन अंग्रेजों को यह मंजूर नहीं था। इससे नाराज होकर मिर्जा ने अंग्रेज अधिकारी सीटन को बुरा-भला कह दिया। गुस्साए अंग्रेजों ने शहजादे को इलाहाबाद के किले में नजरबंद कर दिया। मिर्जा की मां जीनत महल ने इससे बेहद परेशान हो गईं। कई कोशिशें करने के बाद अंत में उन्होंने महरौली में ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की मजार पर अपने बेटे की वापसी और बदले में मजार पर फूलों की चादर और मसहरी चढ़ाने की मन्नत मांगी। आखिरकार ख्वाजा ने उनकी सुन ली।
शहजादे को रिहा कर दिया गया और दिल्ली लौटने की इजाजत भी दे दी। बेगम मन्नत पूरी होने पर जोरशोर से और हाथी-घोड़ों के काफिले के साथ-साथ महरौली की और चल पड़ीं। इस काफिले में फूलवाले भी थे, जो अपने हाथों से गढ़ी चादरों ओर पंखों को लेकर सारी दिल्ली को महकाते हुए चल रहे थे। इसी वजह से काफिले को 'फूल वालों की सैर' नाम दिया गया। हिंदू जनता ने भी अपनी खुशी का इजहार करते हुए पास ही स्थित योगमाया मंदि में छत्र और पोशाक चढ़ाई।
इस दौरान बादशाह इस पूरे माहौल से खूब खुश हुए और उन्होंने इसे एक त्योहार का नाम दे दिया। अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर के शासनकाल में यह त्योहार अपने चरम पर पहुंच गया। हालांकि बाद में अंग्रेजों ने हिंदू और मुसलमानों में फूट डालने की नीति के तहत इस मेले को बंद करा दिया। 1962 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की इच्छा से इस मेले को नया जीवन मिला। तब से यह मेला हर साल अंजुमन सैर-ए-गुलफरोशां की देखरेख में यहां लगता है।
गुरुवार को उपराज्यपाल ने भारी सिक्यूरिटी के बीच मजार पर चादर चढ़ाई। तीन दिनी इस मेले में शुक्रवार को परंपरा के मुताबिक महरौली के ऐतिहासिक योगमाया मंदिर में फूलों का छत्र चढ़ाया जाएगा। दोपहर को कबड्डी, पतंगबाजी, दंगल, और कुश्ती कार्यक्रम होंगे। शनिवार को मुख्य समारोह के तहत रंगारंग कार्यक्रमों और पंखों का प्रदर्शन होगा और कव्वालियों का दिलकश कार्यक्रम होगा।

एनसीआर के स्लमों में हैं कई 'जमाल'

रीतेश पुरोहित


नई दिल्ली ।। आठ ऑस्कर अवॉर्ड जीतने वाली फिल्म स्लमडॉग मिलिनेअर में स्लम में रहने वाले एक बच्चे को करोड़पति बनते हुए दिखाया गया है। रीयल लाइफ में भी झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले कई बच्चे बड़ा आदमी बनने के सपने को हकीकत में बदलने के लिए जी-जान से जुटे हैं। एनसीआर के पब्लिक स्कूलों में पढ़ रहे ये बच्चे बुनियादी सुविधाओं के अभाव में भी संपन्न घरों के बच्चों को पछाड़कर अव्वल आ रहे हैं। ये बच्चे बड़े होकर अपने जैसे ही गरीब बच्चों को पढ़ाकर एक बेहतर इंसान बनाना चाहते हैं। काफी सारे बच्चों का कहना है कि उन्हें मौका मिले तो वे भी कमाल कर सकते हैं।
निजामुद्दीन ब्रिज के पास यमुना से सटी झुग्गी बस्ती में रहने वाला 18 साल का विवेकानंद बिलासपुर (छत्तीसगढ़) से अपने पैरंट्स के साथ यहां आया था। घर में कमाने वाला केवल बड़ा भाई है, जो पेंटर है। विवेकानंद पहले यमुना में लोगों के फेंके गए सिक्के बीनने का काम करता था। कई सालों तक वह स्कूल नहीं जा पाया लेकिन बाद में एक एनजीओ 'राहुल मल्टी डिसिप्लनरी रिसर्च सेंटर' की मदद से उसने धीरे-धीरे पढ़ना सीखा। अब वह पंढारा रोड स्थित एक स्कूल में अपनी क्लास में अव्वल है। उसने कड़कड़ाती ठंड में स्ट्रीट लाइट के नीचे बैठकर पढ़ाई की है। विवेकानंद ने दोस्तों से स्लमडॉग मिलिनेअर के बारे में सुना। वह कहता है कि जिस तरह फिल्म में एक स्लम में रहने वाला जमाल इतना पॉपुलर हो जाता है, उसी तरह मैं भी खूब पढ़-लिखकर नाम कमाना चाहता हूं।
इंदिरा पुरम, गाजियाबाद में डीपीएस स्कूल के पास स्थित स्लम बस्ती में रहने वाली 13 साल की शिखा प्राइमरी स्कूल में तीसरी क्लास तक पढ़ाई करने के बाद कुछ सोशल वर्कर्स का साथ पाकर एक पब्लिक स्कूल में एडमिशन लेने पहुंची। स्कूल के प्रिंसिपल ने शिखा को चौथी क्लास में एडमिशन देने से मना करते हुए उसका नाम तीसरी क्लास में ही लिखने पर जोर दिया। शिखा ने इसे एक चैलेंज की तरह लिया। अब वह छठवीं क्लास में है और पांचवीं में 83 पसेर्ंट नंबर पाकर वह स्कूल टॉपर रही। शिखा के पिता भी उसे पढ़ाना नहीं चाहते थे।
शिखा के स्कूल में ही सातवीं क्लास में पढ़ने वाले संजीत दास की कहानी भी ऐसी ही है। उसके पिता रिक्शा चलाते हैं और मां घरों में बर्तन धोने का काम करती हैं। संजीत ने स्लमडॉग मिलियनेयर देखी है और फिल्म को ऑस्कर मिलने से वह बहुत खुश है। फिल्म में जमाल की भूमिका निभाने वाले देव पटेल का रोल उसे बहुत पसंद आया। संजीत कहता है कि एक झुग्गी बस्ती में रहने वाले किसी लड़के को करोड़पति बनते देखना वाकई में काफी रोमांचकारी है। यह फिल्म स्लम में रहने वाले सभी बच्चों के लिए एक आस बंधाती है।
सोमवार को ही एनजीओ 'चेतना' ने झुग्गी बस्ती में रहने वाले बच्चों को यह फिल्म दिखाई। कीतिर् नगर के कमला नेहरू कैंप में रहने वाले श्रवण का कहना है कि यह फिल्म उनके जैसे बच्चों की सही तस्वीर सामने लाती है। कढ़ाई के काम में जुटे 16 साल के विजय के मुताबिक इस तरह की और भी फिल्में बननी चाहिए, ताकि लोगों को हमारे मुश्किल जिंदगी के बारे में पता चल सके।
 
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वेलकम करेंगे दिल्ली के 7 ऐतिहासिक शहर

रीतेश पुरोहित


नई दिल्ली।। अगले साल होने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान दिल्ली अपने मॉडर्न रूप के साथ साथ सदियों पुराना इतिहास दिखाने के लिए भी तैयार हो रही है। गेम्स के दौरान आने वाले विदेशी टूरिस्टों को यहां के इतिहास की झलक दिखाने के लिए आर्कियॉलजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) ने 46 स्मारकों को चुना है। एएसआई के सुपरिंटेंडेंट आर्कियॉलजिस्ट के. के. मोहम्मद ने बताया कि 25 करोड़ रुपये के बजट से इन धरोहरों को अगले साल अगस्त तक संरक्षित करने और खूबसूरत बनाने का काम पूरा कर लिया जाएगा। इन सभी जगहों पर काम जोरों पर चल रहा है।
जिन 46 स्मारकों को चुना गया है उनमें दिल्ली के सात शहरों के नाम से मशहूर किला राय पिथौरा, सीरी, तुगलकाबाद, जहांपनाह, कोटला फिरोज शाह, पुराना किला और शाहजहांनाबाद शामिल हैं। इनके अलावा हुमायूं का मकबरा, अरब की सराय, सफदरजंग का मकबरा, कश्मीरी गेट और दरियागंज की वॉल्ड सिटी, जंतर-मंतर कॉम्पलेक्स और दिल्ली गेट कुछ खास नाम हैं। मोहम्मद ने बताया कि इन स्मारकों को चुनने में हमने कई बातों का ध्यान रखा, मसलन वह कितने साल पुराना है, उसका ऐतिहासिक महत्व क्या है। इसके अलावा यह भी देखा गया कि इमारत की अभी क्या हालत है और वह कितना पॉप्युलर है। वहां जाना आसान है या नहीं।
उन्होंने बताया कि इन सभी जगहों पर काम लगातार किया जा रहा है और उम्मीद है कि अगले साल अगस्त तक इसे पूरा कर लिया जाएगा। इसके अलावा एएसआई इंटैक (इंडियन नैशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट ऐंड कल्चरल हेरिटेज) के साथ लोदी गार्डन पर मौजूद पांच स्मारकों को दुरुस्त करने का काम कर रहा है। इनमें से एक पर काम पूरा हो गया है, जबकि बाकी पर काम जारी है।

कैसे लौटेगी खूबसूरती
इन सभी स्थानों पर किए जाने वाले काम को पांच हिस्सों में बांटा गया है।
1. मरम्मत का काम
टूटी-फूटी इमारतों पर कंस्ट्रक्शन का काम करके उन्हें पुराना लुक देने की कोशिश की जा रही है। अगर किसी छत से पानी टपक रहा है, तो उसे वॉटर टाइटनिंग के जरिए ठीक किया जा रहा है। दीवारों के बीच बने जॉइंट्स को भरने और उखड़ी हुई दीवारों पर प्लास्टरिंग करने का काम हो रहे हैं। इस पूरे काम में करीब 8.50 करोड़ रुपये का खर्च आएगा।

2. जरूरी सुविधाएं
न सिर्फ स्मारकों, बल्कि उसके पूरे परिसर को अच्छा लुक देने का काम किया जा रहा है। इसके तहत परिसर के रास्तों को दुरुस्त करना, रेलिंग और बाउंड्री वॉल की मरम्मत व कलर करना, इंटरनैशनल स्तर के टॉयलेट बनाना, पीने के पानी की व्यवस्था करना, पब्लिकेशन काउंटर बनाना और नए साइनेज लगाने का काम शामिल है। एएसआई का दिल्ली सर्कल इस पूरे काम को अंजाम देगा। अनुमान है कि इस काम में 6.31 करोड़ रुपये लगेंगे।

3. केमिकल ट्रीटमेंट
इमारत पर जम गई गंदगी को दूर करने और इस पर लिखे नाम को हटाने के लिए केमिकल ट्रीटमेंट का सहारा लिया जा रहा है। 9.20 करोड़ रुपये की लागत से पूरे होने वाले इस काम के तहत एक खास केमिकल का इस्तेमाल करके दीवारें साफ की जा रही हैं। एएसआई की साइंस ब्रांच यह काम कर रही है।
4. होगा हरा भरा
आसपास की जगहों पर घास बिछाई जा रही है। साथ ही पौधे भी लगाए जा रहे हैं। हॉर्टिकल्चर डिपार्टमेंट इसकी जिम्मेदारी संभालेगा। इस काम में करीब 5.17 करोड़ रुपये लगेंगे।
5. रोशनी की व्यवस्था
रात में भी स्मारक खूबसूरत नजर आएं, इसके लिए अंदर व बाहर लाइटिंग का काम किया जा रहा है। इससे ये ऐतिहासिक इमारतें और सुंदर नजर आएंगी। भारत सरकार का टूरिजम डिपार्टमेंट इस काम को पूरा करेगा। करीब 4.85 करोड़ रुपये की लागत से यह काम होगा।

पार्क जमाली-कमाली : खूबसूरत और खाली

रीतेश पुरोहित।। कुतुब मीनार परिसर से करीब 100 मीटर दूर स्थित यह पार्क लगभग 200 एकड़ में फैला हुआ है और


यहां कुल 80 स्मारक हैं। वैसे यह जमाली कमाली पार्क के नाम से भी मशहूर है। अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य वाली इस जगह पर आकर आप इतिहास से सीधे रूबरू हो सकेंगे। इन स्मारकों के बीच आकर लगता है कि मानो हम अतीत के उस सुनहरे दौर में पहुंच गए हों। इन स्मारकों को देखने के बाद आप बिना इनकी तारीफ किए नहीं रह पाएंगे। माना कि यहां के स्मारक कुतुब मीनार की तरह नहीं हैं, लेकिन यह किसी से कम भी नहीं हैं।



करीब एक हजार साल की विरासत के गवाह इस स्थान पर काफी सालों पहले डीडीए और इंटैक (इंडियन नैशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज) ने संरक्षण का काम शुरू किया था। यहां फूल मार्किट के पीछे जाने पर सबसे पहले मुगल काल का बना कुआं आपका स्वागत करेगा। इसके आगे गुलाबों की बहुत बड़ी और खूबसूरत बगिया है। इसके आगे दो और बहुत सुंदर बागीचे हैं। यहां बैठने के लिए कई बेंच लगी हुई हैं और स्टूल भी। यहीं से कुछ ऊंचाई पर मैटकॉफ की छतरी है। ईस्ट इंडिया कंपनी के समय में भारत के प्रशासक रहे चार्ल्स मैटकॉफ की यह छतरी ऊंचाई पर होने के कारण काफी सुंदर दिखाई देती है। इससे कुछ ही आगे जाने पर जमाली और कमाली का मकबरा है। जमाली उर्फ शेख फजलुल्लाह एक संत और कवि थे। इस मकबरे का निर्माण 1528-29 में शुरू हुआ था, लेकिन हुमायूं के शासन के दौरान पूरी तरह बनकर तैयार हुआ। आगे जाने पर बलवन का मकबरा है, जो 16-17 शताब्दी में बना था। इनके अलावा अन्य स्मारकों में मैटकॉफ का ब्रिज और बोट हाउस, कुली खां का मकबरा, लोधी काल का गेटवे, मुगल काल के मकबरे, राजाओं की बावली प्रमुख हैं।



इस पार्क के बारे में दिल्ली के बहुत सारे लोगों को जानकारी नहीं है। इस वजह से यहां काफी कम ही लोग मौजूद होते हैं। हालांकि पार्क के पास सड़क है, लेकिन इसके काफी बड़ा होने से यहां कोई शोरशराबा नहीं होता। यह पार्क सुबह से लेकर शाम तक खुला रहता है। कोई एंट्री फीस नहीं है और कितनी ही देर तक बैठने पर भी कोई रोकटोक नहीं है। हालांकि खाने-पीने का सामान आपको कुतुबमीनार से ही लाना होगा, क्योंकि यहां आसपास कोई दुकान वाला नहीं है। यहां मौजूद कुछ स्मारकों के केवल अवशेष ही बचे हैं। यदि इस पूरे क्षेत्र का संरक्षण पहले हो चुका होता तो शायद यह जगह और भी खूबसूरत होती। बहरहाल, इस वैलंटाइंस और वीक एंड को कुछ खास बनाने के लिए यह एकदम सही जगह हो सकती है।
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/4127495.cms

हिस्ट्री और फ्यूचर के बीच लटकी पार्किन्ग

रीतेश पुरोहित


नई दिल्ली।। एएसआई के करीब 50 साल पुराने कानून को बदल कर सरकार ने कॉमनवेल्थ गेम्

स से जुड़े प्रोजेक्टों को फौरी राहत दे दी है। लेकिन बहादुरशाह जफर मार्ग पर अंडरग्राउंड मल्टिलेवल पार्किन्ग बनाने का एमसीडी का प्रोजेक्ट अब भी लटका है। आर्कियॉलजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) का कहना है कि पार्किन्ग की प्रस्तावित जगह को आर्कियॉलजी के नजरिए से इन्वेस्टिगेट करने की जरूरत है। एमसीडी को जीपीआर (ग्राउंड पेनिटरेटिंग रेडार) सवेर् करके बताना होगा कि साइट की जगह पर उस जमाने का कोई ऐतिहासिक स्ट्रक्चर तो मौजूद नहीं हैं।



कॉमनवेल्थ गेम्स से जुड़े प्रोजेक्टों को कानूनी अड़चनों से बचाने के लिए केंद्र सरकार ने हाल ही में अध्यादेश लाकर 1958 के ऐक्ट में संशोधन किया था। पिछले साल दिसंबर में हाई कोर्ट ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए एएसआई को आदेश दिया था कि किसी भी संरक्षित स्मारक के 100 मीटर के दायरे में हो रहे हर कंस्ट्रक्शन को तुरंत रोके। कोर्ट ने स्मारक के प्रतिबंधित दायरे में कंस्ट्रक्शन को अनुमति देने वाली एक्सपर्ट्स अडवाइजरी कमिटी को भी गैरकानूनी करार देते हुए भंग कर दिया था। इसके बाद एएसआई ने प्रतिबंधित दायरे में हो रहे कॉमनवेल्थ गेम्स से संबंधित प्रोजेक्टों के अलावा 92 निर्माण कार्यों से संबंधित एजेंसी या व्यक्ति को नोटिस जारी कर तुरंत काम बंद करने को कहा था।



ऐसे में इन प्रोजेक्टों के पूरा होने पर खतरा मंडराने लगा था। सरकार ने अध्यादेश लाकर इसका हल ढूंढ लिया। इस अध्यादेश के तहत स्मारक के 100 मीटर के दायरे में चल रहे कॉमनवेल्थ गेम्स के प्रोजेक्टों के लिए कानून में छूट दे दी गई है। हालांकि शहीदी पार्क के पास एमसीडी की प्रस्तावित पार्किन्ग को हरी झंडी नहीं मिल पाई। इसकी वजह यह है कि एएसआई ने इस पार्किन्ग के लिए कभी अपनी मंजूरी दी ही नहीं थी।



एएसआई के एक आला अधिकारी का कहना है कि शहीदी पार्क के पास ही फिरोजशाह कोटला का किला है। तुगलक वंश के शासक फिरोजशाह तुगलक ने इसका निर्माण किया था और इस किले के आसपास ही अपना शहर बसाया था। ऐसे में इस बात की संभावना है कि प्रस्तावित पार्किन्ग की जमीन के नीचे कई पुरातात्विक अवशेष हों। पार्किन्ग के निर्माण से ये अवशेष नष्ट हो सकते हैं। इसी वजह से हमने एमसीडी से कहा है कि वह इस जगह का जीपीआर सवेर् कराए। जीपीआर सर्वे के तहत सैटलाइट तरंगों को जमीन पर डाला जाता है। हमने एमसीडी से यह भी कहा है कि वह किले की बाउंड्री और शहीदी पार्क की बाउंड्री से संबंधित डिटेल प्लान तैयार करके दे। अगर एमसीडी ऐसा करती है, तभी इस प्रस्तावित पार्किन्ग पर विचार किया जाएगा। इस पूरे एरिया को भी आर्कियॉलजी के नजरिए से इन्वेस्टिगेट करने की जरूरत है। बहादुरशाह जफर मार्ग पर पार्किन्ग की भारी समस्या को देखते हुए एमसीडी ने शहीदी पार्क के पास अंडरग्राउंड पार्किन्ग बनाने की योजना बनाई थी।

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ऐतिहासिक स्थलों को टूरिस्ट फ्रेंडली बनाएंगे

पिछले दिनों डॉ. गौतम सेन गुप्ता ने आर्कियॉलजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) के महानिदेशक का पद संभाला। सालों बाद इस पद पर किसी आर्कियॉलजिस्ट का आना निश्चय ही महत्वपूर्ण है। रीतेश पुरोहित ने उनसे बातचीत कर यह जानने की कोशिश की कि यह जिम्मेदारी संभालने के बाद डिपार्टमेंट को लेकर उनकी क्या योजनाएं हैं और मौजूदा समस्याओं से निपटने के लिए वह कौन सी रणनीति अपनाएंगे।
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अरसे बाद एक आर्कियॉलजिस्ट ने फिर से एएसआई के महानिदेशक का पद संभाला है। पिछले 15 सालों के दौरान कई पक्ष अनछुए रह गए हैं। इनके बारे में अब आपकी क्या प्लानिंग है और आपका क्या विजन है?

मुझे अभी इस पद को संभाले ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। फिलहाल तो मैं डिपार्टमेंट से संबंधित हर मुद्दे को अच्छी तरह समझ रहा हूं। इस समय हम डिपार्टमेंट में स्पेशलाइज्ड लोगों की कमी से जूझ रहे हैं। इसके लिए हम अपने डिपार्टमेंट के लोगों को ट्रेंड करके इस समस्या को सुलझाना चाहते हैं। लोगों को ऐतिहासिक स्मारकों से जोड़ने के लिए हम पब्लिक रिलेशन प्रोग्राम्स पर भी जोर दे रहे हैं। हम हेरिटेज साइट्स को टूरिस्ट फ्रेंडली बनाने में जुटे हैं, लेकिन यह एक लॉन्ग टर्म प्रोसेस है।

देश भर में ऐसी कई ऐतिहासिक इमारतें हैं, जिन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। कई जगहों पर अवैध कब्जे हैं, असामाजिक तत्व यहां डेरा डाले रहते हैं। इस तरह की प्रॉब्लम्स से निपटने के लिए आपके पास क्या ऐक्शन प्लान है?

हम इन सभी प्रॉब्लम्स को जानते हैं। संसद के इसी सत्र में ऐतिहासिक स्मारकों से संबंधित नया कानून पास हुआ है। नए ऐक्ट में इन सभी प्रॉब्लम्स को सॉल्व करने के लिए कुछ नए नियम और प्रावधान किए गए हैं।

कॉमनवेल्थ गेम्स के मद्देनजर 46 स्मारकों पर कन्जर्वेशन और रिस्टोरेशन का काम हो रहा है, लेकिन क्या आपको लगता है कि गेम्स के बाद भी इन स्मारकों पर इसी तरह ध्यान दिया जाएगा और ये फिर से नजरअंदाज नहीं किए जाएंगे?

गेम्स केवल हमारे लिए नहीं पूरे देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। दिल्ली एक ऐतिहासिक शहर है, इसलिए इन खेलों के मद्देनजर हमारी जिम्मेदारी भी काफी है, लेकिन मुझे पूरा भरोसा है कि गेम्स के बाद भी सभी ऐतिहासिक स्मारकों पर हमारा पूरा ध्यान रहेगा।


कानून के मुताबिक केंद्र द्वारा संरक्षित किसी भी स्मारक के 100 मीटर के दायरे में कोई भी कंस्ट्रक्शन या खुदाई नहीं की जा सकती। ऐसी शिकायत मिलने पर एएसआई पुलिस में शिकायत करती है, लेकिन यहां तो देखते ही देखते पूरी बिल्डिंग खड़ी हो जाती है। एएसआई इसे पुलिस की जिम्मेदारी मानती है, लेकिन समस्या जस की तस रहती है। ऐसे में सॉल्यूशन क्या है?
सभी संबंधित डिपार्टमेंट बेहतर तालमेल से काम करें, तभी यह समस्या सुलझ सकती है।

1958 के ऐक्ट के मुताबिक 100 साल पुराने किसी राष्ट्रीय महत्व के स्मारक को संरक्षित घोषित किया जा सकता है, लेकिन देश में कई ऐसे स्मारक हैं जो सैंकड़ों साल पुराने हैं, लेकिन एएसआई की लिस्ट में शामिल नहीं हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि किसी ऐतिहासिक स्मारक को राष्ट्रीय महत्व का स्मारक घोषित करने की नीति क्या है?
यह बात एकदम सही है कि कई सारे स्मारक ऐसे हैं, जो 100 साल से ज्यादा पुराने हैं, लेकिन वे एएसआई के संरक्षित स्मारकों की लिस्ट में शामिल नहीं हैं। सेंट्रल अडवाइजरी बोर्ड ऑफ आर्कियॉलजी की मीटिंग में इस बारे में चर्चा की गई है। भारत सरकार की इस पर नजर है। हालांकि हम हर साल नए स्मारकों को अपनी लिस्ट में शामिल करते जा रहे हैं।

पूरे देश में इस समय तेजी से डिवेलपमेंट वर्क हो रहा है, लेकिन कई जगहों पर इसके कारण हमारे ऐतिहासिक स्मारक नष्ट होते जा रहे हैं। इस बारे में आपका क्या कहना है?
यह अकेले भारत की नहीं, पूरे विश्व के लिए बहुत बड़ी समस्या है, लेकिन फ्यूचर के लिए डिवेलपमेंट बहुत जरूरी है। ऐसे में डिवेलपमेंट और कन्जर्वेशन में एक बैलेंस होना चाहिए यानी डिवेलपमेंट इस तरह हो, जिससे ऐतिहासिक धरोहर को नुकसान न पहुंचे।

आप खुद ऐकडेमिक बैकग्राउंड से आते हैं। आर्कियॉलजी से संबंधित रिसर्च के बारे में आपकी क्या योजनाएं हैं?
इस फील्ड में रिसर्च कराना हमारे मुख्य अजेंडे में है। हम प्री-हिस्ट्री, हिस्टोरिक आर्कियॉलजिकल साइंस, कंजर्वेशन स्टैंडर्ड आदि सब्जेक्ट्स पर रिसर्च कराना चाहते हैं।

देश में आपके 24 सर्कल हैं और हजारों ऐतिहासिक स्मारक आपके संरक्षित स्मारकों की लिस्ट में शामिल हैं, लेकिन डिपार्टमेंट की संरचना सुदृढ़ नहीं है। एएसआई के पास इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। डिपार्टमेंट हर स्तर पर कर्मचारियों और अधिकारियों की कमी से जूझ रहा है।
यह सही है। हम इस बारे में सरकार से बात कर रहे हैं। हमारी कोशिश है कि जल्द से जल्द इस कमी को पूरा किया जाए।

वाह! क्या नाम है

डीएमके नेता एम. करुणानिधि के बेटों में राजनीतिक वर्चस्व के लिए संघर्ष चल रहा है. जब भी करुणानिधि के सुपुत्र एम.के. स्टालिन की चर्चा होती है, लोग जानने को उत्सुक हो जाते हैं कि उनका नाम और तमिल नामों से इतना अलग क्यों है?

दरअसल द्रविड़ आंदोलन के सूत्रधार पेरियार ई.वी. रामास्वामी अपनी सोवियत संघ की यात्रा के बाद कम्युनिस्ट आंदोलन से बहुत प्रभावित हो गए थे। वह सोवियत नेताओं की खूब चर्चा करते थे। इस कारण उस दौर में तमिलनाडु में स्टालिन और लेनिन नाम प्रचलित हो गए। अपने नेता की तरह एम. करणानिधि भी सोवियत नेताओं से प्रभावित थे। उन्होंने अपने एक बेटे का नाम स्टालिन रखा। करुणानिधि के इस बेटे के जन्म के चार दिनों के बाद ही सोवियत नेता जोसेफ स्टालिन की मौत हो गई।

आरजेडी अध्यक्ष और पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव की बड़ी बेटी का नाम मीसा है। इसका अर्थ क्या है? मीसा का मतलब है- मेंटिनेंस ऑफ इंटरनल सिक्युरिटी एक्ट। यह कानून इमर्जेंसी के दौर में लाया गया था, जिसके तहत कई अन्य नेताओं के साथ लालू भी जेल में बंद रहे। उसी दौरान उनकी इस बेटी का जन्म हुआ।
हमारे देश में दिलचस्प नामों के रोचक संदर्भ हैं। अंडरवर्ल्ड में अजीबोगरीब नाम मिलते हैं। दाऊद इब्राहिम का एक शार्गिद मोहम्मद सलीम मोहम्मद इकबाल कुरैशी सलीम फ्रूट के नाम से फेमस हुआ। वजह यह थी कि उसके पिता फलों का धंधा करते थे और बाद में उसने भी यहीं धंधा अपना लिया था। एक और सलीम था। उसके पास कई टेंपो थे, जिनके जरिए वह अपने टेंपो को स्मगलिंग के लिए किराए पर दिया करता था, इसलिए उसका नाम पड़ गया- सलीम टेंपो।

पहले कूड़ा देखो, फिर अशोक का शिलालेख

रीतेश पुरोहित ।। नई दिल्ली


ईस्ट ऑफ कैलाश में मौर्य शासक सम्राट अशोक का दुर्लभ शिलालेख देखने स्टों का सबसे पहले सामना होता है, यहां फैली बदबू से। यह बदबू आती है इस ऐतिहासिक स्मारक के इकलौते एंट्री गेट के दोनों ओर पड़े रहने वाले कूड़े से। तीन सालों से यहां कूड़ा डाला जा रहा है और इसकी संभावना बेहद कम है कि आने वाले समय में भी यहां कूड़ा इकट्ठा होना बंद हो। वजह यह है कि एमसीडी के पास कूड़ा डालने के लिए इस एरिया में कोई और जगह ही नहीं है। नियमत: किसी भी संरक्षित स्मारक के पास कूड़ा फेंका जाना गलत है। यह जगह उन ऐतिहासिक स्मारकों की लिस्ट में है, जिन पर कॉमनवेल्थ गेम्स के मद्देनजर खास ध्यान दिया जा रहा है।


साउथ दिल्ली में कैप्टन गौड़ मार्ग और कालकाजी मंदिर के पास मौजूद ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी का यह शिलालेख इलाके के रेजिडेंशल इलाके में खुदाई के दौरान मिला था। 1996 में आर्कियॉलजिस्टों ने इसे पहचाना। यह शिलालेख सम्राट अशोक द्वारा लिखे उन आदेशों में से एक है, जिसमें उन्होंने भारत के लोगों को करीब लाने के लिए और धम्म (धर्म) के बारे में बताने के लिए शिक्षा दी थी। दस लाइनों के इस उद्बोधन को प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखा गया है। हालांकि अब इस पर लिखे अक्षर भी ठीक से दिखाई नहीं देते।

कॉमनवेल्थ गेम्स के मद्देनजर एएसआई की यहां नए साइनेज लगाने, नए टॉयलेट ब्लॉक्स बनाने और सौंदर्यीरण की प्लानिंग है। सूत्र बताते हैं कि बौद्ध धर्म के लोगों के लिए यह स्थान बेहद मायने रखता है। यहां अक्सर विदेशों से बौद्ध पर्यटक भी आते हैं, लेकिन एंट्री गेट के दोनों तरफ लगे कूड़े के ढेर की वजह से उनकी सारी उत्सुकता खत्म हो जाती है। सूत्रों का कहना है कि पहले यह कूड़ा गेट के अंदर पड़ा होता था। पिछले साल यहां थाइलैंड की राजकुमारी आई थीं। उस समय यहां बहुत बड़ा कार्यक्रम किया गया था। तब इस कूड़े के ढेर को उनकी नजरों से बचाने के लिए बाहर लाया गया और ढक दिया गया। तबसे कूड़े का अंदर फेंका जाना बंद हो गया। सूत्रों का कहना है कि घरों से इकट्ठा होने वाला कूड़ा भी यहीं फेंका जाता है। इसके बाद कूड़े को यहां से उठाकर ले जाया जाता है।
एएसआई अधिकारियों का कहना है कि हमने इस बारे में एमसीडी को एक बार लेटर लिखा था, लेकिन एमसीडी ने हमें बताया कि उसके पास इलाके में कोई और ऐसी जगह नहीं है, जहां इस कॉलोनी में इकट्ठे होने वाले कूड़े को फेंका जाए। एमसीडी प्रवक्ता दीप माथुर ने भी माना कि हमारे पास यहां ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां इस कूड़े को फेंका जा सके। हालांकि हमने सेनेटरी इंस्पेक्टर को निदेर्श दिए हैं कि यहां पर्याप्त सफाई रखी जाए, ताकि बदबू न आए। हम कोशिश कर रहे हैं कि ऐसी कोई जगह मिल जाए, जहां कूड़े को फेंका जा सके। उन्होंने इस बात पर कुछ भी कहने से इनकार कर दिया कि कॉमनवेल्थ गेम्स तक यह पूरा कर लिया जाएगा या नहीं। हालांकि एएसआई अधिकारियों को पूरा भरोसा है कि इस ऐतिहासिक स्मारक के गेट पर लगने वाले कूड़े को हर हाल में हटाया जाएगा। उनका कहना है कि हम इसके लिए एमसीडी के आला अधिकारियों से बात करेंगे।